महर्षि नारद के उपदेश पालनीय हैं

महर्षि नारद के उपदेश पालनीय हैं

प्रो. कुसुमलता केडिया

  इन्द्रप्रस्थ में महाराज युधिष्ठिर की राज्यसभा में देवर्षि नारद ने स्वयं पहुँचकर जो प्रश्न किये थे, वे वस्तुत: प्रश्न के रूप में युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश ही थे। वे उपदेश श्रेय के आकांक्षी सभी राज्यकर्ताओं द्वारा मनन योग्य और आचरण योग्य हैं। महाभारत में श्री वेदव्यास ने देवर्षि नारद के लिये जिन विशेषणों का प्रयोग किया है, वे सभापर्व के 5वें अध्याय में श्लोक 2 से 12 तक वर्णित हैं। उनमें कहा गया है कि देवर्षि नारद वेदों और उपनिषदों के ज्ञाता हैं, देवताओं द्वारा पूजित हैं, इतिहास और पुराण के मर्मज्ञ हैं, न्याय के विद्वान हैं, धर्मतत्व के ज्ञाता हैं, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष- इन छहों अंगों के पंडितों में शिरोमणि हैं, राजनैतिक ज्ञान में विशारद हैं, प्रगल्भ वक्ता हैं, मेधावी हैं, स्मरणशक्ति सम्पन्न हैं, ब्रह्मवेत्ता हैं और त्रिकालदर्शी हैं।
ऐसे देवर्षि नारद का महाराज युधिष्ठिर ने भाइयों सहित वंदन एवं सत्कार किया। तदुपरान्त जब सब लोग यथास्थान बैठ गये, तब नारद जी ने प्रश्नों के माध्यम से राजनैतिक उपदेश प्रारंभ किया। वे उपदेश अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और प्रत्येक राज्यकर्ता के द्वारा ध्यान देने योग्य तथा आचरण करने योग्य हैं। उन्होंने प्रश्न किया - राजन, आपका मन धर्म में प्रसन्नता पूर्वक लगता है ना? भगवान का ध्यान करते समय आपका चित्त विक्षेपों में तो नहीं उलझता? इस प्रश्न के माध्यम से देवर्षि ने राजाओं के लिये भी सर्वोपरि कर्तव्य नित्य परमात्मा का चिंतन और अपने मन को वश में रखते हुये चित्त की एकाग्रता का अभ्यास करना बताया है। ऐसा करने से चित्त ज्ञान और सत्य के प्रकाश को ग्रहण करने योग्य हो जाता है और तब वह दीप्त हो उठता है।
ब्रह्मर्षि नारद बोले - 'राजन, क्या तुम्हारा धन तुम्हारे द्वारा करणीय यज्ञ, दान और प्रजापालन के लिये भरपूर है। क्या धर्म में तुम्हारा मन रमता है? तुम्हारा मन सुखों के आकर्षण से कर्तव्य से विचलित तो नहीं होता? तुम्हारे मन में उन अन्य वृत्तियों के कारण आघात या विक्षेप तो नहीं पहुँचता? तुम चारों वर्णों की प्रजा के प्रति वैसा ही उदार व्यवहार करते हो ना जैसा तुम्हारे पिता-पितामह आदि करते रहे हैं? धन के लोभ में पढ़कर तुम धर्म को हानि तो नहीं पहुँचाते अथवा केवल धर्म में ही संलग्न रहकर अर्थ पुरुषार्थ को तो हानि नहीं पहुँचाते? तुम कामभोग और धन की आसक्ति में फ़ंस कर धर्म पुरुषार्थ को बाधित तो नहीं करते? तुम धर्म, अर्थ और काम इन तीनों का सम्यक ज्ञान रखते हो ना? और सबका सम्यक रूप से सेवन करते हो ना?’
आगे ब्रह्मर्षि नारद ने कहा - 'हे विजयी वीरों में श्रेष्ठ नरेश, तुम राजाओं के लिये विहित : गुणों को सदा धारण करते हो ना? ये : गुण हैं- व्याख्यानशक्ति, प्रगल्भता, तर्ककौशल, अतीत की स्मृति, भविष्य पर दृष्टि और नीतिनिपुणता। इन : गुणों के द्वारा तुम सात उपायों को अपनाते हो ना? सात उपाय हैं- मन्त्रणा, औषधियां, आवश्यकता पढ़ने पर भ्रम रचना तथा साम, दान, दण्ड और भेद। तुम जनपद, दुर्ग, रथ, हाथी, घोड़े, शूरवीर सैनिक, राजकीय अधिकारी, अपना अंत:पुर, अन्न भंडार, गणना (जनगणना तथा राजकोष गणना), शास्त्र, लेखा, धन और बल इन 14 विषयों का निरंतर ध्यान रखते हुये इनका परीक्षण और परख करते रहते हो ना? तुम अपनी शक्ति और शत्रु की शक्ति को सदा स्मरण कर अच्छी तरह समझते रहते हो ना? प्रबल शत्रु के साथ सन्धि करते हुये धन और कोष की वृद्धि के लिये ये आठ कर्म करते हो ना - (1) खेती का विस्तार, (2) व्यापार की रक्षा, (3) दुर्ग की रक्षा एवं रचना, (4) पुलों का निर्माण और उनकी रक्षा, (5) हाथियों का पालन, (6) सोने-हीरे-जवाहरात आदि की खानों पर अधिकार, (7) कर की सम्यक वसूली और (8) उजाड़ क्षेत्रों में लोगों को बसाना।
स्पष्ट है कि यदि हम इन बातों का ज्ञान रखें तो हमें अपने वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के अनेक कार्यों का मर्म स्पष्ट हो जायेगा। कब किस पर यान यानी अभियान करना है और कब किस विषय में आसन अर्थात् अपने ही स्थान पर शांत रहकर समय की प्रतीक्षा करना, कब किस शत्रु से कलह करनी है और किस प्रकार उनमें द्वैधीभाव अर्थात फ़ूट उत्पन्न करनी है तथा किस बलवान का साथ लेना है और किससे सुलह करनी है, इस सब का विचार श्रेष्ठ शासक का कर्तव्य है। विपक्ष के जो लोग प्रधानमंत्री से इन उपायों को अपनाते हुए सदा केवल यान अर्थात हर विषय में अभियान ही छेड़ने और आतंकवादियों आदि का निरंतर दमन ही करते दिखने या उसकी घोषणा करने का आग्रह करते हैं और इस प्रकार वास्तविक अभियान में बाधा उत्पन्न करते हैं, वे या तो इन विषयों में गंभीर नहीं हैं या सत्ता की स्पर्धा में राष्ट्र का हित भी भूल जाते हैं।
आगे ब्रह्मर्षि नारद ने धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा कि हे भारत, राज्य की सात प्रकृतियां अर्थात सात अंग - शासक, सचिव, कोष, राष्ट्र, सेना, राष्ट्र के निवासी और मित्र इन सातों पर पूरा ध्यान रखते हो ना? इनमें से कोई भी शत्रु के बहकावे में तो नहीं रहा है या शत्रु से मिल तो नहीं रहा है? (हमारे अनेक कथित स्वयंसेवी संगठन और मीडिया के कतिपय लोग तथा विपक्ष के भी कतिपय राजपुरूष इस प्रकार मिलते देखे जाते हैं)
नारद जी ने पूछा - राजन, तुम्हारे राज्य के धनी लोग तुमसे प्रेम करें, इसका ध्यान रखते हो ना? वे धनी लोग कहीं मनुष्यों को भीतर से कमजोर कर देने वाले व्यसनों में तो नहीं फ़ंसते? साथ ही शत्रु के गुप्तचर मित्र बनकर तुम्हारे सचिवों आदि से भेद तो नहीं ले लेते? मित्र, शत्रु और उदासीन- तीनों प्रकार के लोगों के विषय में तुम सम्यक ज्ञान रखते हो ना? अपने स्वयं के समान शीलवान और विश्वसनीय, सदाचारी तथा शुद्ध जीवन जीने वाले वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, शिल्प आदि कलाओं और विद्याओं में वृद्ध लोगों को ही तुम सचिव चुुनते हो ना? क्योंकि विजय की प्राप्ति का मूल कारण अच्छी मन्त्रणा (सलाह) और उसकी सुरक्षा ही है। गोपनीय बातों को गुप्त ही रखने वाले तथा शास्त्रों के ज्ञाता, सचिवों के द्वारा तुम्हारा राष्ट्र सुरक्षित तो है ना? कहीं शत्रु उसे भेद तो नहीं रहे हैं?
ब्रह्मर्षि नारद ने प्रश्नों के द्वारा ही शिक्षा देते हुये आगे कहा- तुम असमय निद्रा के अधीन तो नहीं हो जाते? समय पर जग जाते हो ना? रात्रि के अंतिम पहर में जग कर अपने हित और कर्तव्य के विषय में भलीभांति विचार तो करते हो ना? गोपनीय बातें अधिक लोगों से साझा तो नहीं करते? या अकेले ही तो गूढ़ विषयों पर विचार नहीं करते? (क्योंकि अकेले शासक गूढ़ विषयों के सभी पक्षों पर विचार नहीं कर पाता। विश्वस्त और विशेषज्ञ सचिव आवश्यक है)
'तुम धन की वृद्धि के उन उपायों पर विचार कर उन पर अमल करते हो ना जिनमें मूलधन कम लगे परंतु वृद्धि अधिक होती हो? साथ ही, समाज में भी अन्य प्रमुख लोग यदि इसी प्रकार धनवृद्धि करते हों तो तुम्हारा शासन उसमें बाधा तो नहीं डालता? श्रमजीवी कर्मकर लोगों का सम्पूर्ण ज्ञान तुम्हारा राज्य रखता है ना? उनके कार्यों और गतिविधि पर तुम्हारी दृष्टि रहती है ना? क्योंकि महान अभ्युदय में सभी का साथ आवश्यक है।
ब्रह्मर्षि ने प्रश्नमयी शिक्षा देना जारी रखा - 'विश्वसनीय, लोभशून्य और परम्परा से चले रहे कौशल के विशेषज्ञों के द्वारा ही तुम विश्वसनीय कार्य कराते हो ना? इसका ध्यान रखते हो ना कि तुम्हारे महत्वपूर्ण कार्यों को लोग कार्यसिद्धि के बाद ही जानें पहले नहीं?’
ब्रह्मर्षि ने महाराज से आगे प्रश्न किया- 'प्रमुख राजपुरुषों और प्रमुख योद्धाओं को सब प्रकार की शिक्षा दी जाती है ना? वह शिक्षा देने वाले शिक्षक सभी शास्त्रों के मर्मज्ञ तथा धर्मज्ञ विद्वान ही होते हैं नासैकड़ों मूर्खों के स्थान पर एक पंडित को ही तुम नियोजित करते हो ना? क्योंकि किसी भी संकट में तुम्हारा कल्याण कोई विद्वान पुरुष ही कर सकता है?
'तुम्हारे सभी दुर्ग और किले धन-धान्य से भरे हुये, अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित, यन्त्रों से सज्जित और जल से भरपूर तथा शिल्पी और शस्त्रधारी सैनिकों से सज्जित रहते हैं ना?’
'तुम शत्रुपक्ष के अठारहों तीर्थों पर दृष्टि रखते हो ना? (ये अठारह तीर्थ हैं - मन्त्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अन्त:पुर का अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, कारागाराध्यक्ष, वित्तसचिव, आन्तरिक सुरक्षा सचिव, नगराध्यक्ष, शिल्पियों का प्रधान परिचालक, धर्माध्यक्ष, सभाध्यक्ष, दंडपाल, दुर्गपाल, सीमापाल तथा वनरक्षक) इसी प्रकार तुम अपने पक्ष के 15 तीर्थों की भलीभांति जांच-परख करते रहते हो ना? (ऊपर वर्णित 18 तीर्थ में से मंत्री, पुरोहित और युवराज को छोड़ कर शेष सभी स्वपक्ष के 15 तीर्थ हैं)
'हे शत्रुविनाशक युधिष्ठिर, तुम शत्रु के प्रति सदा सावधान रहकर उन्हें नष्ट करने के लिये नित्य प्रयत्नशील रहते हो ना? तुम्हारे पुरोहित राजनय के विशेषज्ञ, कुलीन, बहुविद विद्वान, दोषदृष्टि से रहित और शास्त्रचर्चा में कुशल है ना? तुम उनका पूर्ण सत्कार करते हो ना?’ (हे नरेन्द्र! तुम वेदज्ञ ब्राह्मणों के साथ केवल आधुनिक मतवादों के साधारण जानकार लोगों को विद्वान कहकर कैसे बैठा सकते हो? तुम गाँधीजी को हरामी कहने वालों को शासन में समान महत्व कैसे दे सकते हो? जो लोग यह मानते हैं कि भले ही तुम सदाचार करो, पर हमारे मजहब या पंथ में ईमान नहीं लाने पर तुम और तुम्हारी माताजी तथा तुम्हारे सभी परिजन और सनातनधर्म में आस्था रखने वाले तुम्हारे सभी लोग दोजख या 'हेलयानी नरक जायेंगे, उनके साथ तुम समानता का व्यवहार कैसे कर सकते हो? तुम उस मजहब के ईमान को समान मान्यता कैसे दे सकते हो जो तुम्हारे अपने पूर्वजों को दोजख के योग्य ही मानता है? यह तो अपात्र का सत्कार और सुपात्र का अनादर है)
ब्रह्मर्षि ने कहा- 'हे राजन! यज्ञ की विधि के जानकार, बुद्धिमान और सरल स्वभाव वाले ब्राह्मणों को तुमने यज्ञ के अनुष्ठान के लिये नियुक्त किया है ना? वे यज्ञ के उचित समय की सूचना तुम्हे समय-समय पर देते रहते हैं ना? हाथ-पैर आदि शरीर के विविध अंगों की परीक्षा में निपुण ज्योतिषी तुम्हारी सभा में हैं ना? ग्रहों की गति और उनके शुभाशुभ परिणाम को बताने वाले तथा ग्रहों के उत्पात को गणना से जानकर उनके शमन की विधि जानने वाले ज्योतिषी तुम्हारी राजसभा में हैं ना? तुमने श्रेष्ठ व्यक्तियों को ही महान कार्यों में लगा रखा है ना? मध्यम कार्यों में मध्यम श्रेणी के लोगों को और निम्न श्रेणी के कार्यों में उसके अनुरूप सेवकों को लगा रखा है ना? परम्परा से चले आये आचार-विचार वाले श्रेष्ठ लोगों को ही तुमने सचिव बना रखा है ना?’
आगे नारद जी पूछते हैं- 'हे राजन! तुम इतना अधिक कर तो नहीं लेते कि जिससे प्रजा तुम्हारा तिरस्कार करने लगे? क्योंकि पवित्र याजक जिस प्रकार पतित यजमान का तिरस्कार कर देते हैं और शीलवती स्त्रियां कामुक पुरुषों का तिरस्कार करती हैं, उसी प्रकार अधिक कठोर दंडविधान और अधिक कर ग्रहण वाले शासक का प्रजा तिरस्कार कर देती है।
(टिप्पणी- राजधर्म के विषय में अत्यन्त महत्वपूर्ण ज्ञानचर्चा वाला नारद जी का यह प्रसंग अगले अंक में भी जारी रहेगा। क्योंकि यह अभी असमाप्त है और राजधर्म की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है)
 

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