राजा कालस्य कारणां

राजा कालस्य कारणां

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज  

 वर्तमान समय में हिन्दू समाज में जिन विषयों पर सर्वाधिक अस्पष्टता है, उनमें से एक है युगों का विभाजन। काल सम्बन्धी सर्वाधिक प्राचीन एवं सार्वाधिक विस्तृत चिंतन भारत में ही हुआ है। इसलिए काल के विषय में भारतीय चिंतन से संबंधित शास्त्र स्वयं ही प्रमाण हैं। उनके विषय में विदेशियों ने विशेषकर 19वीं एवं 20वीं शताब्दी ईस्वी में जो कुछ भी लिखा है, वह अप्रामाणिक है। वस्तुत: अपने क्षेत्र से बाहर के निवासियों और देशों को छल-कपट से थोड़े समय के लिये अपने नियंत्रण में लाने में सफ़ल होते ही यूरोप के लोगों ने, जो पहले भारत की संस्कृति और सभ्यता की स्तुति करते थकते नहीं थे, अचानक इसे यूरोप का ही प्रभाव बताने का निर्णय लिया। उन्हें लगा कि इसके द्वारा हम विशेषत: भारत को दीर्घ अवधि तक अपने नियंत्रण में रख सकेंगे। अगर परोक्ष नियंत्रण की बात कहें, तो एक अर्थ में वे इसमें सफ़ल ही हुये हैं। परंतु प्रत्यक्षत: तो उन्हें 90 वर्षों में ही भारत से अपना शासन त्यागना पड़ा। भले ही जाते-जाते अपने अनुगतों को ही सत्ता का हस्तांतरण करते गये।
सभ्यताओं के काल्पनिक विभाजन
सर्वप्रथम तो इस विषय में यह जानना चाहिए कि भारत के ही प्राचीन जनपदों की सभ्यता और संस्कृति को उन्होंने या तो जानबूझकर या अनजाने ही नितांत भिन्न सभ्यतायें प्रचारित किया। सभी जानते हैं कि सुमेर एवं यवन क्षेत्र प्राचीन भारत के ही जनपद थे। परंतु यूरो-ईसाई समुदायों ने अपनी ज्ञान परंपरा को प्राचीन बताने के लिये 19वीं शताब्दी ईस्वी से अचानक यवन प्रांत को यूरोप नामक एक काल्पनिक क्षेत्र का अंग बताना शुरू कर दिया। स्वयं यूरोपीय लोगों ने लिखा है कि 19वीं शताब्दी ईस्वी से पहले यूरोप नाम की कोई भी वस्तु दुनिया में नहीं थी। इसका अर्थ है कि वे भौगोलिक क्षेत्र तो अपनी जगह थे, परंतु उन्हें यूरोप इससे पहले कभी नहीं कहा जाता था।
बहुत ही विकट पहाड़ी और दलदली क्षेत्र होने के कारण, जिसे आज यूरोप कहा जाता है, वह सम्पूर्ण क्षेत्र आपस में भी अलग-थलग पड़े हुये इलाकों की तरह था। उनके आपसी संपर्क 17वीं शताब्दी ईस्वी से पहले नगण्य थे। इसलिये उन्होंने भारत में भी थोड़ी-थोड़ी दूर में अलग-अलग सभ्यतायें होने की परिकल्पना कर ली। वर्तमान भारतीय क्षेत्र में भारतीय राजाओं का शासन होने के कारण उन्हें इसे एक ही हिन्दू सभ्यता का क्षेत्र कहना पड़ा परन्तु सुमेर और यवन क्षेत्रों की उन्होंने अलग सभ्यतायें होने की बात प्रचारित की और सुमेर एवं यवन क्षेत्र में विकसित ज्योतिषशास्त्र की बात की और उससे भारतीय ज्योतिष को प्रभावित बताने का प्रयास किया। जबकि वस्तुत: ये क्षेत्र भारत का अंग थे और वहाँ जो ज्योतिष पाया गया, वह स्वयं भारत के ज्योतिष का एक अंग था। यूरोप में जो ज्योतिषशास्त्र फ़ैला, उसमें स्थानीय मान्यतायें बड़ी सीमा तक स्थान पा गईं। कालांतर में स्वयं भारतीय ज्योतिषशास्त्र में भी उनके प्रभाव पाये जाते हैं। उदाहरण के लिये दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने यह कहा कि नक्षत्र अनुग्रहशील हैं और वे दुख भी दे सकते हैं, ये दोनों गुण नक्षत्रों में हैं।
यूरोप में व्यापक था ग्रहों का भय
टॉल्मी जिन्हें यवन एवं रोमन दोनों ही बताया जाता है, एक प्रख्यात ज्योतिषी हैं। उन्होंने ग्रहों के प्रभाव पर विस्तार से लिखा है। 18वीं शताब्दी ईस्वी में जर्मन दार्शनिक एवं कवि गेटे ने, जिन्होंने 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्को विश्व का सर्वश्रेष्ठ नाटक कहा है, अपने संस्मरणों का आरंभ ही अपने जन्म के समय की ग्रहों की स्थितियों से किया है। तब से अब तक यूरोप में ज्योतिष का अत्यधिक प्रभाव है। अत: इस संभावना को टाला नहीं जा सकता कि भारत के ज्योतिषशास्त्र में बाद में यूरोपीय संपर्क से भी कुछ तत्व मिले हों। परन्तु मुख्य बात यह है कि काल के विषय में जितना सूक्ष्म चिंतन वैदिक काल से आज तक भारत में हुआ है, वैसा कुछ भी यूरोप में नहीं हुआ है। जब लूथर जैसे लोग तक यह प्रचार कर रहे थे कि जोशुआ (जीसस) ने सूर्य को स्थिर रहने का आदेश दिया था और तब से (ईस्वी सन-50 से) सूर्य स्थिर है, तब भी भारत में ज्योतिषशास्त्र का विशाल साहित्य रचा जा रहा था।
प्लेटो के नाम से जो लेखन मिलता है, उसमें प्लेटो का मत बताया जाता है कि पृथ्वी घनाकार है। इस प्रकार भारत के ज्योतिषशास्त्र की तुलना में यूरो-ईसाई राज्यों के तथा यवन राज्य के भी ज्योतिषी अल्पज्ञ ही ठहरते हैं। इसलिये ईर्ष्यावश इन लोगों ने भारतीय ज्योतिषशास्त्र को यूरोप से ही प्रभावित दिखाने की हास्यास्पद चर्चायें की हैं। परंतु यह भी तथ्य है कि विगत कुछ शताब्दियों से भारत में युगों को लेकर जो एक स्थायी मान्यता सी हो गई है, वह प्राचीन वैदिक साहित्य एवं महाभारत काल में अनुपस्थित है।
राजा ही काल का कारण है
युगों के विषय में जो गणनायें हैं, वे समस्त पृथ्वी में आने वाले कतिपय उल्लेखनीय परिवर्तनों के विषय में सत्य हो सकती हैं, परंतु उन्हें लेकर जो यह प्रचार हो गया है कि अब तो कलियुग गया है इसलिये केवल पतन ही पतन होगा, यह वैदिक कालदर्शन से विपरीत बात है। क्योंकि वैदिक काल से महाभारत काल तक और उसके बाद की भी अवधि में हमें बार-बार यह शास्त्रीय प्रतिपादन मिलता है कि राजा ही काल का कारण है। पितामह भीष्म शांतिपर्व में अध्याय 69 के श्लोक 79 में युधिष्ठिर से स्पष्ट कहते हैं -
'कालो वा कारणं राज्ञो, राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयों मा भूद्, राजा कालस्य कारणम्।।
अर्थात यह निश्चित है कि राजा ही काल का कारण है। आगे के श्लोकों में उन्होंने बताया है कि जब राजा दंडनीति का सम्यक प्रयोग करते हैं तो उस राज्य में काल स्वयं ही कृतयुग या सतयुग को उपस्थित कर देता है। जब राजा दंडनीति के केवल तीन-चौथाई भागों का ही अनुवर्तन करते हैं तो त्रेतायुग होता है। अर्धभाग का अनुसरण करते हैं तो द्वापर युग होता है और जब राजा दंडनीति की उपेक्षा करके प्रजा को दुष्टों के द्वारा पीड़ित होते हुये देखते हैं तो वह कलियुग होता है। कलियुग में अधर्म की ही वृद्धि होती है।    
राजमूलक हैं युग
शांतिपर्व के ही अध्याय 141 के श्लोक 10 में पुन: भीष्म यही कहते हैं कि सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग इन सबका मूल कारण राजा ही है। राजा के आचरण से ही युग का निर्धारण होता है। इसकी पुष्टि में भीष्म ने अनेक कथायें भी कही हैं। शुक्रनीति में भी चतुर्थ अध्याय में श्लोक 56 से 60 तक यही बात कही गई है। अंत में शुक्राचार्य का निष्कर्ष है कि राजा ही युग का प्रवर्तक है। अगर किसी राज्य में अधर्म की वृद्धि होती है तो इसके लिये तो काल को दोषी ठहराना चाहिये और ही प्रजा को। अपितु राजा ही इसके लिये उत्तरदायी है -
'युगप्रर्वतको राजा धर्माधर्मप्रशिक्षणात्।
युगानां प्रजानां दोष: किन्तु नृपस्य हि।।
इसी प्रकार मनुस्मृति में अध्याय 9 में श्लोक 301 एवं 302 में मनु ने कहा है कि राजा के आचरण के अनुसार ही किसी भी राज्य में कृत, त्रेता, द्वापर अथवा कलियुग होते हैं। राजा ही युग का निर्धारक है। जब राजा कर्तव्यविमुख हो तो उस राज्य में कलियुग होता है। जब अल्पउद्यमी हो तब द्वापर और जब राजकार्य में दत्तचित्त हो तब त्रेतायुग होता है। अगर समस्त प्रजा को राजा धर्म में नियोजित रखता है और वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा को सुनिश्चित रखता है तो उस राज्य में कृतयुग या सतयुग होता है। अत: स्पष्ट है कि युग का निर्धारण राज्य की दृष्टि से कोई स्थिर एवं सुनिश्चित या पूर्वनिश्चित नहीं है। शासक के आचरण से ही युग का निर्धारण होता है। वायुपुराण तथा अन्य पुराणों में भी यह स्पष्ट कहा गया है कि यह जो युगों की बात है, यह केवल भारतवर्ष के लिये ही है। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि युगों का कालनिर्धारण स्थायी और सार्वभौम नहीं है।
कलिकाल का प्रचार
ऐसा लगता है कि जब 16वीं-17वीं शताब्दी ईस्वी के उपरांत चक्रवर्ती राजाओं का राज्य नहीं रहने से समाज में कुछ अराजकता फ़ैलती दिखी तो तत्कालीन विद्वानों ने लोक शांति के लिये उसका दायित्व युग पर डाल दिया। कलियुग में तो ऐसा ही होता है, यह आश्वासन का एक बड़ा आधार बन गया। परंतु इस पर आँख मूंदकर विश्वास करने से हानियाँ भी हुई हैं। विशेषकर 20वीं शताब्दी ईस्वी में अंग्रेजों ने इस धारणा को हिन्दू समाज में घनीभूत होने दिया, जिससे कि भारत में उन्हें भगाने की कोई तीव्र प्रेरणा उपस्थित नहीं हो और उनका आना कालप्रवाह का निश्चित विधान मान लिया जाये। बहुत संभव है कि जो हिन्दू राजा अंग्रेजों के मित्र थे, जिनमें राजपूतों और मराठों सहित देशभर के बहुत बड़ी संख्या में राजा सम्मिलित हैं, उन्होंने भी अपनी कमी को छिपाने के लिये कलियुग की बात को सुनिश्चित विधान के रूप में प्रचारित होने दिया।
ग्लानि का कारण
परन्तु अब यह मान्यता अकारण और अनुचित ग्लानि का कारण बन गई है। हमारे अनेक राजाओं ने अनेक बार प्रतिस्पर्धी राजाओं पर विजय प्राप्त की। कई बार कई हिन्दू राजाओं ने मुसलमान राजाओं को साथ लेकर अन्य अपने प्रतिस्पर्धी हिन्दू राजाओं को पराजित किया। परन्तु ब्रिटिश प्रचार के कारण अंग्रेजी शिक्षा में शिक्षित लोग उसे इस्लाम की विजय और बाद में अंग्रेजों की विजय की तरह प्रचारित करने लगे। इसे भारत की निरंतर पराजय की अवधि प्रचारित किया जाने लगा। इस प्रकार जहाँ महाभारत के उपरान्त बारम्बार अनेक तेजस्वी और ऐश्वर्यशाली हिन्दू राज्यों और राजाओं का वैभवशाली उत्कर्ष हुआ, वहीं इस प्रचार के परिणामस्वरूप इस संपूर्ण अवधि को हिन्दू पराजय की अवधि प्रचारित कर दिया गया। यह बड़ा अनर्थ हुआ है। इसलिये भारतीय कालदर्शन के मूल स्वरूप को पुन: स्मरण करने की आवश्यकता है।
उत्कर्ष के काल को पराभव का काल प्रचारित किया
कलियुग कोई स्थाई तथ्य नहीं है और राजा या शासन के व्यवहार पर युग निर्धारित होता है। अत: शासन का कर्तव्य सर्वोपरि है। युग का प्रभाव प्रचारित कर शासन की कर्तव्यहीनता को छिपाना अनुचित है और युग की अत्यधिक ग्लानिपूर्ण चर्चा से श्रेष्ठ शासन के प्रति भी समुचित उत्साह नहीं उत्पन्न होना एक अन्य प्रकार का अनौचित्य है। दोनों ही प्रकार के अनौचित्य से बचने के लिये सत्य को जानना आवश्यक है। तो भारत में निरंतर पराजय की घटनायें घटती रही हैं और ही 8वीं शताब्दी ईस्वी से 20वीं शताब्दी ईस्वी तक भारत का कोई पराभव काल है। इस अवधि में अत्यन्त गौरवशाली हिन्दू साम्राज्यों का उदय और विस्तार हुआ तथा द्वीपान्तर तक हिन्दू शासन का प्रसार हुआ। तिब्बत, खोतान, अजरबेजान, कजाकिस्तान, ताजकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, म्यांमार, मलयेशिया, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि द्वीपान्तरों तक हिन्दू संस्कृति और शासन के विस्तार की अवधि को पराभव और ग्लानि की अवधि प्रचारित करना असत्य की पराकाष्ठा है। युगों और काल के विषय में फ़ैली हुई भ्रांत धारणा इस असत्य प्रचार को आधार दे देती है। अत: इससे मुक्त होकर सत्य को जानना चाहिये और यह शास्त्रीय प्रतिपादन सदा स्मरण रखना चाहिये कि महाभारत के बाद की अवधि भारत के लिये कोई पतन की अवधि नहीं है तथा राजा ही काल का कारण है। अत: श्रेष्ठ शासन पुन: श्रेष्ठ काल का उत्कर्ष संभव कर सकता है।

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