योग-आयुर्वेद एवं सद्वृत्त

योग-आयुर्वेद एवं सद्वृत्त

वैद्या सुमन सिंह
सहायक प्राध्यापिका, क्रिया शारीर विभाग,
पतंजलि आयुर्वेद कॉलेज, हरिद्वार

   
चरक संहिता सूत्र स्थान के प्रथम अध्याय (दीर्घजीवितीयाध्याय) में आचार्य चरक ने स्पष्टत: धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को आरोग्यता का मूल कहा है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्षाणाम् आरोग्यं मूलम् उत्तमम्। (.सू. /१५)
इसी अध्याय में चरकाचार्य ने हितायु अहितायु का वर्णन किया है जिसमें हितायु को सर्वजनहितैषी, विवेकी, उत्तम आचरण से पूर्ण एवं मनोविकारों के वेग से परे बताया।
चरक संहिता के सप्तम अध्यायनवेगान्धारणीयाध्यांमें मन के वेगों को धारण के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। मन के हानिकारक वेग यथा- लोभ, मोह, क्रोध, शोक, भय, ईष्र्या को धारण करने से निन्दित कर्मों से बचा जा सकता है।
वाणी के वेग धारण से मनुष्य कठोर वचनों झूठ से बच सकता है और व्यर्थ के झगड़ों से अपनी ऊर्जा हानि को बचा सकता है।
शरीर द्वारा धारणीय वेग, हिंसा, चोरी दुष्कृत्यों से बचाते हैं।
आचार्य चरक ने सूत्र स्थान के अष्टम अध्याय में सद्वृत्त पालन के नियमों का विस्तृत वर्णन किया है जिसके अन्तर्गत दैव-गौ-ब्राह्मण-गुरुजनों वृद्धों की पूजा-सत्कार का विधान कहा है। प्रात:-सायंकाल हवन, स्वच्छता का पालन, मुसीबत में पड़े जीवों की सहायता करना, विनयशील रहना, झूठ-पापकर्म से बचना तथा उत्तम आचरण धारण करना इत्यादि बताए हैं।
चरक शारीर स्थान में उपधा (नैष्ठिकी) चिकित्सा का वर्णन करते हुए आचार्य ने उपधा (तृष्णा-लोभ-मोह-राग-द्वेष) को सभी दु:खों का मूल बताया है।
उपधा हि परो हेतु: दु: दु: आश्रयप्रद:
त्याग: सर्वोपधानां सर्व दु: व्यपोहक:।। (.शा.प्र.. /९५)
जो ज्ञानवान पुरुष इन भोग्य पदार्थों को नष्टवान जानकर, इनसे निवृत्त हो जाता है, वह रज-तम से विमुक्त होकर सत्य प्रकाश पुंज की ओर अग्रसरित होता है।
उपधा चिकित्सा के कारण आयुर्वेद सर्वोत्कृष्ट दर्शन शास्त्रों में गिना जाता है क्योंकि आयुर्वेद शास्त्र के युक्तियुक्त अनुपालन से आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक व्याधियों की निवृत्ति का प्रशस्त उपाय निर्दिष्ट है।
चरक चिकित्सा स्थान (/ (३०-३५) में आचार रसायन सेवन के नियमों के उल्लेख में पुन: पवित्रता, मधुर भाषी होना, धैर्य, दान-जप-तप, पूज्यनीय गणों की सेवा-सत्कार, अहंकार विहिनता, कल्याणकारी भाव, इन्द्रियों को आध्यात्मिक विषयों में लीन करना आदि गुणों का वर्णन प्राप्त है।
आयुर्वेद से समकक्ष योग सूत्र में भी जीवन का दर्शन शास्त्र बताया है जिसमें शारीरिक शुद्धि से आध्यात्मिक शुद्धि पर्यन्त नियमों का संग्रह है-
योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ एवं
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधि: (पा.यो.सू.)
योग के माध्यम से चित्त (मन) की वृत्तियों पर नियन्त्रण कर, अष्टांग योग की धारा से क्रमश: यमनियमआसन
प्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधि की अवस्था को पाया जा सकता है।
अर्वाचीन मापदण्डों आंकलन के स्तर पर यह प्रमाणित हो चुका है कि योग-प्राणायाम के अभ्यास से तन्त्रिका-तन्त्र अन्त:स्रावी ग्रन्थियों की कार्मुकता बढ़ती है।
आज के युग में निरन्तर बढ़ रहे मानसिक दबाव के कारण अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो रही है जिसके लिए योग-प्राणायाम-योगनिद्रा-ध्यान आदि क्रियाकलाप इस परिपेक्ष में कारगर साबित हो रहे हैं।
अत: हम सब योग आयुर्वेद की वैदिक शैली को अपनाकर जिसमें जप-तप-दान-ध्यान-सद्वृत्त पालन आदि गुणों को दिनचर्या में अपनाकर सशक्त व्यक्तित्व और समृद्ध राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। 

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