पतंजलि वैलनेस इंटरग्रेटेड प्राकृतिक-योग-आयुर्वेद चिकित्सा लाइपोमा

पतंजलि वैलनेस इंटरग्रेटेड प्राकृतिक-योग-आयुर्वेद चिकित्सा लाइपोमा

डॉ. नागेन्द्र 'नीरज'  निर्देशक चिकित्सा प्रभारी
योग-प्राकृतिक-पंचकर्म चिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र
योग-ग्राम, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार

  त्वचा के अन्दर जगह-जगह फैटी टिशू की गांठे बन जाती हैं। उसे छूने पर रबर के नन्हे गेंद की तरह मुलायम, लचीला तथा अंतरण एवं मूव करने वाले प्रतीत होते हैं। यह सख्त नहीं होते। अधिकांश लाइपोमा दर्ददायक नहीं होता है। इनसे कोई अन्य स्वास्थ्य समस्या भी नहीं होती है। अर्थात् ये पीड़ा रहित होते हैं। कभी-कभी लाइपोमा नस-नाड़ियों पर बन जाता है। उस पर दबाव पड़ने से दर्द पैदा करता है। लाइपोमा में दर्द होने पर लोग निकलवा देते हैं। लाइपोमा शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकता है। फिर भी प्राय: पीठ, सिर, कन्धा, ग्रीवा, बांह, धड़ पर लाइपोमा की गांठे ज्यादा देखने को मिलती हैं।
प्राय: 40 से 60 की उम्र के लोगों में लाइपोमा की बीमारी होती है। यह स्त्री-पुरुष किसी को भी हो सकता है। वैसे किसी भी उम्र में यहाँ तक कि जन्मजात शिशुओं में भी देखने को मिला है। लाइपोमा औसतन महिलाओं में ज्यादा होता है।
प्राय: इसमें पारीवारिक इतिहास मिलता है। कुछ विशेष दुर्लभ रोग डेरकम रोग (Dercum’s Disease)  पारीवारिक जेनेटिक्स गारेल्नर सिण्ड्रोम (Garalner Syndrome)  पैतृक मल्टीपल लाइपोमेटोसिस, मैडेलुंग्स डिजीज (Madelungs Disease) में भी नाना प्रकार के मल्टीपल समरूप लाइपोमेटोसिस गांठें दिखती हैं। प्राय: इनका आकार 2 इंच व्यास का होता है, लेकिन कभी-कभी 6 इंच व्यास के भी देखने को मिला करते हैं।

विभिन्न आकार प्रकार के लाइपोमा :

कुछ लाइपोमा में रक्त वाहिनियाँ भी होती है, इन्हें एन्जियोलाइपोमा भी कहते हैं। यह दर्द वाली दुर्लभ एवं असामान्य होती है। कुछ लाइपोमा में सिर्फ फैटी कोशिकाएँ ही होती हैं। ये सफेद फैटी कोशिकाएँ संग्रहित ऊर्जा की गांठे हैं, इन्हें परम्परागत कॉनवेनशनल लाइपोमा तथा कुछ गांठे फैट तथा फाइब्रस उत्तको से बनी होती हैं, इन्हें फाइब्रोलाइपोमा कहते हैं। कुछ गांठो में ब्राउन फैट जमा होता है, जो शीघ्रता से ताप प्रदान कर शरीर के तापमान को नियमित एवं नियंत्रित करता है। कुछेक में सिर्फ हवाइट विसरल फैट ही होता है। इन्हें हिबरनोमा (Hibernoma)  लाइपोमा कहते हैं। कुछेक फैटी सेल्स गोलाकार होकर लम्बवत होते हैं, इन्हे स्पीण्डल सेल लाइपोमा कहते हैं। कुछेक विभिन्न आकार-प्रकार के होते हैं जिन्हे प्लियोमॉर्फिक लाइपोमा, कुछेक लाइपोमा की गांठों में फैट तथा उत्तकों का ऐसा समिश्रण होता है जो रक्त कोशिकाएँ पैदा करती हैं इन्हें मायलोलाइपोमा (Myelolipoma) कहते हैं।
कुछेक में लाइपोमा कैंसर वाला होता है जिसे लाइपोसार्कोमा कहते हैं। ऐसी लाइपोसर्कोमा की गांठे सख्त ठोस एवं तेजी से बढ़ने वाली होती हैं। दबाने पर टेण्डरनेस अचानक असह्य दर्द होता है। गांठ सख्त एवं एक जगह स्थिर रहती है, मूव नहीं करती है। ऐसी गांठों को अल्ट्रासाउण्ड, एम.आर.आई., सीटीस्कैन या बायोप्सी कराने की सलाह दी जाती है।
इसकी इम्यूनोहिस्टोकेमिकल मार्कर पेरिलाइपिन-1 तथा पेरिलाइपिन-2 होता है। जो लोग शराबी होते हैं उनमें यही लाइपोमा मेडलंग्स रोग के रूप में सामने आता है। देखने में इसकी गांठें लाइपोमा की तरह ही होता हैं, परन्तु इसके साथ भांति-भांति के खास प्रकार की वसा कोशिकाओं के टिपिकल स्पिंडल सेल तथा मल्टी वेक्युलेटेड लाइपोब्लास्ट एडिपोसाइट्स पाये जाते हैं।

मेडलंग्स डिजीज (Madelung’s Disease):

लाइपोमा की तरह गांठे होती हैं। यह दुर्लभ किस्म की फैट मेटाबॉलिज्म संग्रहित वसा संबंधी रोग है। यह प्राय: 30-70 साल के मध्य अत्यधिक शराब पीने वाले लोगों में होता है। इसमें भी ग्रीवा, कंन्धा, बांह, भुजबल्ली, भुजबंध, नितम्ब तथा जंघा पर असामान्य एडिपोस फैटी उत्तकों की गांठे होती हैं जो शीघ्रता से महीने के अन्दर तथा देरी से वर्षों में फैल जाती हैं। चेहरे तथा पैरों में भी हो जाती हैं। प्राय: गांठे दर्द रहित होती हैं। कहीं-कहीं गांठों के कारण बोलने, निगलने तथा चलने में कठिनाई होती है। यह प्राय: यूरोपियन तथा भूमध्यसागरीय (Mediterranean) निवासियों में ज्यादा होता है। एशियन लोगों में कम होता है। यह पैतृक भी होता है। यह दो प्रकार का टाइप-1 प्राय: पुरुषों के ग्रीवा के आस-पास तथा टाइप-2 मोटे पुरुषों तथा महिलाओं में बराबर होता है। टाइप-3 में पेडू के आस-पास गांठें होती हैं। मधुमेह, रक्तचाप, हाइपोथायरॉयडिज्म, गठिया तथा लिवर वाले रोगियों में इस प्रकार की गांठें बनिस्पत ज्यादा होती हैं।
अभी तक इसके कारण को नहीं समझा गया है। मान्यता है कि यह अन्तस्त्रावी ग्रथियों के गड़बड़ी के कारण होता है। एड्रेनरजिक एपिनेप्रिफन तथा नॉरएपिनेप्रिफन हार्मोन के गड़बड़ी से फैट के ब्रेकडाउन लाईपोलाइसिस होने से असामान्य फैटी कोशिकाएँ जमा होकर मेडलंग्स रोग पैदा करती हैं। इसमे अल्कोहल आग में घी डालने का कार्य करता है जो माइट्रोकॉण्ड्रिल एन्जाइमेटिक प्रक्रिया को उद्यीप्त कर एर्डेनरजिक लाइपोलाइसिस तथा श्वसन चेन फंगशन को अस्त-व्यस्त कर यह रोग पैदा करता है।
मेडलंग्स डिजीज लाइपोमस, लिम्फैटिक ट्यूमर, सियालेडेनाइटिस, हिबरनोमा, लाइपोसार्कोमा से अलग होता है। जीवन में कोई कठिनाई नहीं होने पर कुछ लोग बिना इलाज के लाइपोमा तथा मेडलंग्स डिजीज के साथ जी लेते हैं। पीड़ा होने पर अन्य लाइपोसक्शन, लाइपोलाइसिस इन्जेक्शन या सर्जिकल रिमोवल तरीका अपनाते हैं।

आहार चिकित्सा:

उपचार की दृष्टि से लाइपोमा का सर्वोत्तम उपचार फलाहार, रसाहार, उपवास है। इनका कमाल का प्रभाव सिर्फ एवं सिर्फ लाइपोमा आदि पर होता है। सैकड़ों लाइपोमा ग्रस्त रोगियों को यहाँ उपचार से लाभ मिलता है। फल एवं सब्जियों के रस एवं उपवास से फेट का मेटाबॉलिज्म सही ढंग से होने लगता है। कार्बोहाइड्रेट-फैट आदि मैक्रोन्यूटिएन्ट कम कर दिए जाते हैं या बन्द हो जाते हैं। कैल्शियम, मैग्नेशियम, आयरन आदि मिनरल्स विटामिन-, बी., सी., ., के. आदि विभिन्न विटामिन कैरोटिनॉयड ग्रुप के अल्फा कैरोटिन, बीटा कैरोटिन, बीटा क्रिप्टोजेन्थि, जैन्थोफिल, जियाजेन्थिन, ल्यूटिन, फ्लेवोनॉयड के विभिन्न फ्लेवोन्स एपिजेनिन, रूटिन सिबलिन, क्रिसिन केम्पफेरॉल, लुटियोलिन, गॉसपेटिन फ्लेवोनॉल्स जैसे क्यूर्सेटिन, क्यूरसेटेगेटिन, माइरेसेटिन, फलेवोनेन्स फिसेटिन, नारिजिन, नारिजेनिन एण्थोसायनिन डॉल्फिनिडिन, सायनिडिन, पेटुनिडिन, पियोनिडिन, पेलरगोनिडिन, माल्वीनिडिन आदि बायोएक्टिव माइक्रोन्यूट्रिएन्ट वाले आहार मौसम के अनुसार मिलने वाले अंगूर, चेरीज, बेरीज रस्पबेरी, स्ट्राबेरी, लेटूस, नाशपाती, गाजर, ग्रेपफू्रट, सेव, पार्सली, पामेलो आदि माइक्रोन्यूट्रिएन्ट नीबू, संतरा आदि खट्टे फलों में हेसपरेटिन टेक्सीफोलिन तथा नारिजेनिन फैट मेटाबॉलिज्म को सही करते हैं। इसमें उपवास एवं माइक्रोन्यूट्रिएन्ट युक्त आहार ही परम औषधि है। इससे एडेनर्जिक माइट्रोकाण्ड्रियल एन्जाइमेंटिक पाथवेज सही होने तथा एण्टी इन्फ्लामेट्री साइटोकाइन्स एवं किमोकाइन्स नियंत्रित होने से यह रोग लाइपोमा नियंत्रित होने लगता है। पारिवारिक इतिहास वाले रोगियों को शुरू से ही सजग रहना चाहिए। उन्हें प्रोइन्फ्लामेट्री रोग कारक आहार में फास्टफूड, जंकफूड, प्रोसेस फूड, लालमंास, अण्डा, कन्फेक्शनरी फूड, शराब, तम्बाकू, सोडा, कोलादि, कृत्रिम सिंथेटिक आहार नही लें। तले-भूने आहार, चाट, पकौड़े, पुड़ियाँ, समोसा, डोसा, ग्रील्लिंग तथा तन्दूरी वाले आहार नहीं लें। इनमें पॉलीसाइक्लिक एमिन्स, एक्रोलोमायड, एडवान्स ग्लाइकेशन एण्ड प्रोडक्ट्रस (AGES), नाइट्रोसएमिन्स, हेट्रोसाइक्लिकएमिन्स तथा प्रीजरवेटिव, कलरेन्ट फ्लेवर्ड आदि रसायन होते हैं। इस प्रकार के आहार नहीं लें। यह रोग को और उग्र बना देते हैं।

प्राकृतिक योग चिकित्सा:

गरम-ठण्डा सेक, पेट कमर की मालिश देकर नीबू पानी, नीम के पानी तथा 8-10 सिस्टोग्रीट को पानी में घोलकर एनिमा बदल-बदल कर दें। सावना, स्टीम-बाथ, गरम पाद स्नान, सौम्य या ठण्डा कटि स्नान, सूर्य स्नान, ग्रीन हाऊस थर्मोलियम, कलर थर्मोलियम, सौम्य या ठण्डा रीढ स्नान, ग्रीवा, कन्धा, बाह, जघा तथा नितम्ब जहाँ पर लाइपोमा गांठ हो, वहाँ लोकल स्टीम देकर लपेट या मिट्टी की लेप लगायें। लोकल स्टीम के बाद मिट्टी में हल्दी लहसुन एवं अदरख मिलाकर पुल्टिस बांधे।

उपवास चिकित्सा:

तीन दिन तक सिर्फ एक नीबू, मेथी पानी तथा दो चम्मच शहद मिलाकर 3 घंटे के अंतराल से लेते रहें अथवा दो माह तक अन्तरालीय इन्टरमिटेन्ट फास्टिंग करने से कुछ रोगों में कमाल का प्रभाव होता है। इन्टरमिटेन्ट फास्टिंग के अन्तर्गत एक दिन आहार, दूसरे दिन निराहार उपवास या सुबह 8.30 से 9.30 बजे के मध्य भोजन करना तथा दोपहर 1.30 से 2.00 बजे के मध्य भोजन अर्थात् 6 घंटा भोजन का समय तथा 18 घंटा पूर्ण उपवास या 6-18 इन्टरमिटेन्ट फास्टिंग का प्रभाव सिर्फ सभी प्रकार के सामान्य बेनाइन तथा कैंसरस मैलिंगनेन्ट गांठ या ट्यूमर पर ही नहीं होता है बल्कि अनेक रोगों पर होता है। इन्टरमिटेेन्ट फास्टिंग तथा रेस्ट्रिक्टेड कैलोरी पर अब तक सैकड़ों रिसर्च प्रोजक्ट विश्व के सैकड़ो नामचीन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन ने सम्पन्न किया है, जिसका वर्णन रोगों की सही चिकित्सा, अनमोल मिट्टी के बोल तथा जल चिकित्सा तथा पतंजलि योगपीठ की विख्यात पत्रिका योग-संदेश में बराबर देते रहे हैं। विगत दिनों पूज्य स्वामी जी तथा पतंजलि रिसर्च इन्स्टीट्यूट के रिसर्च वैज्ञानिक डॉ. अनुराग वार्ष्णेय तथा मैंने स्वयं द्वारा विस्तार से आस्था, संस्कार एवं वैदिक टी.वी. कार्यक्रम द्वारा इस बारे में दिया जाता रहा है। अभी कुछ दिन पूर्व यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, ईरविन के वैज्ञानिकों के एक दल प्रो. पावलो सेसोन-कोर्सी के नेतृत्त्व में हुए रिसर्च की रिपोर्ट सेल रिपोटर््स में प्रकाशित हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार फास्टिंग हमारे बायोलॉजिकल क्लॉक एवं सर्केडियन रिदम पर जबरदस्त रूप से गहरा प्रभाव डालता है। जिस प्रकार दिन में दोबारा समुद्र का उतार चढ़ाव (ebb & flow) की तरह निद्रा एवं जागृति चक्र अर्थात् सर्केडियन रिदम के कारण प्रभावित होता है। सर्केडियन रिदम ही हमारे अनिद्रा की स्थिति को नियंत्रित करती है। प्रत्येक प्राणी में विशेष प्रोटीन से बने मालेक्युल्स से कम्पोज्ड 'इन्नेट टाइमिंग डिवाइस' होता है। जिसे मास्टर बायोलौजिकल क्लॉक कहते हैं। मस्तिष्क में स्थित हाइपोथैलमस में इस मास्टर क्लॉक में करीब 20,000 न्यूरॉन्स मिलकर सुपर चियास्मेटिक न्यूक्लियस (SCN) रिले सेन्टर का निर्माण करते हैं। जहाँ से बायोलॉजिकल क्लॉक एवं सर्केडियन रिदम के अनुसार नींद, जागरण, भूख, सेक्स न्यूरोक्राइन, एण्डोक्राइन, एक्सोक्राइन ग्लैंड पाचन एवं अन्य अंगों आदि सभी के कार्य का नियमन एवं नियंत्रण होता है। सभी प्रकार के इनपुट आँखों के द्वारा मुख्य क्लू के रूप में दिन प्रकाश तथा रात अंधेरा के सहारे प्राप्त करते हैं। शरीर के अन्दर स्थित नेचुरल फैक्टर तथा पर्यावरणीय सिग्नल बायोलॉजिकल क्लॉक के रास्ते सर्केडियन रिदम पैदा होता है।
बायोलॉजिकल क्लॉक को सितार माने तो उससे झरता संगीत सर्केडियन रिदम हैं। सितार वाद्य यंत्र है, जो दृश्य दिखता है। संगीत अदृश्य होते हुए भी अनुभूत है। आनन्द, उमंग, आरोग्य, उल्लास एवं उत्साह से भर देता है। 
दिन के सूर्य प्रकाश में मस्तिष्क से निकलने वाला सरोटोनिन तथा रात्रि में मेलाटोनिन का प्रभाव होता है। सूर्योदय के कारण दिन में सेरोटोनिन के प्रभाव से अंग प्रत्यंग सशक्त सचेत कर्मशील प्रसन्न एवं स्वस्थ रहते हैं। पाचन संस्थान सक्रिय रहता है। सूर्यास्त के बाद रात्रि में मेलाटोनिन के प्रभाव से पाचन संस्थान एवं अंग-प्रत्यंग शान्त शिथिल एवं विश्राम एवं नींद में जाने के लिए बेचैन रहते हैं। रात्रि में खाने से भोजन का पाचन अच्छी तरह नहीं होता है। फलत: मोटापा, मधुमेह, संधिवात, गांठें, ट्यूमर आदि मेटाबोलिक सिण्ड्रोम रोग होते हैं। दिन के 8 से 2 बजे के मध्य 6 घंट तक जितना कैलोरी का भोजन लेना चाहिए, कैलोरी भले कम करें, किन्तु 18 घंटे यानि 2 बजे शाम से सुबह 8 बजे तक खायें। आवश्यकता के अनुसार सिर्फ एवं सिर्फ पानी पीयें। 18 घंटे के इन्टरमिटेन्ट फास्टिंग से ऑटोफेगी प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि दूध, नीबू तथा नीबू परिवार का फल कुछ पाचक एन्जाइम तथा कार्बोन एवं प्रोटीन वाले आहार ऑटोफेगी प्रक्रिया में बाधक होते हैं। किटोजेनिक आहार फल ऑटोफेगी प्रक्रिया को सक्रिय करते हैं। ऑटोफेगी द्वारा शरीर की नैसर्गिक सफाई डिटॉक्स व्यवस्था सक्रिय हो जाती है। शरीर की मूल इकाई कोशिकाएं होती है। प्रत्येक कोशिका में अनेक विभाग होते हैं। उनके अलग-अलग कार्य होते हैं, कुछ समय तक काम करने के पश्चात् कुछेक अंग खराब होने लगते हैं। वे अपना काम करना बन्द कर देते हैं। अवांछित अंग कूड़ा-कचरा के रूप में जीर्ण, शिर्ण पुराने बीमार निकम्मे अंगों के जमा होने से विभिन्न रोग पैदा होते हैं। आरोग्य नष्ट होता है। उन कचरों का निकालने या खत्म करने का काम ऑटोफेगोसोम प्रक्रिया द्वारा होता है। साबुत, स्वस्थ सक्रिय बचे हुए अंगों को रिसायकल करके पुन: उनका रियूज एवं रिएसेम्बल करने का काम ऑटोफेगोसोम प्रक्रिया द्वारा होता है। ऑटोफेगी एक प्रकार के क्वालिटी कन्ट्रोल का कार्य भी करता है। कोशिका अच्छी तरह काम करती रहें तथा अपनी क्षमता का अधिकतम उपयोग करती रहें इसके लिए ऑटोफेगी प्रक्रिया अत्यन्त आवश्यक है। इतना ही नहीं प्रत्येक अंग अपना परफॉर्मेन्स एवं कार्य प्रदर्शन शानदार बनाये रखें। इसकी व्यवस्था एवं नियंत्रण उपवास से उत्पन्न ऑटोफेगोसोम द्वारा होता है। ऑटोफेगी प्रक्रिया द्वारा सभी प्रकार के रोगाणु, पैथोजेन्स, बैक्टीरिया या वायरस को समाप्त किया जाता है। ऑटोफेगी एजिंग प्रक्रिया को रोकता है तथा लाँजेविटी यानि दीर्घायु प्रदान करता है। सदा स्वस्थ जवान काम करने का जुनून सुन्दर सकरात्मक जज्बात और ख्यालात तथा जोश बरकरार रखता है।
ऑटोफेगी प्रक्रिया से जीन को सकरात्मक दिशा में प्रभावित करने वाले अनेक ट्रान्सक्रिप्टशन फैक्टर, एम.टी..आर. (मैमेलियन टारगेट ऑफ रेपामाइसिन) तथा .एम.पी.के. (एडिनोसाइन मोनोफॉस्फेट एक्टिवेटेड प्रोटीन काइनेस) सक्रिय हो जाते हैं। उपवास से आटोफेगी जीन एल.सी.-3 सक्रिय हो जाते हैं। वैसे एल.सी.-3बी तथा एल.सी.-3सी. भी आटोफेगोसोमल (ऑटोफेगीलाइसोसोम) मेम्ब्रेन के संरचनात्मक प्रोटीन हैं, ये सभी-मिलकर ऑटोकेगोसोमल प्रक्रिया को शानदार बनाते हैं। इसके सक्रियता से शरीर में पोषण का सदुपयोग एक लय-ताल में प्रारम्भ हो जाता है। शरीरतुल्य स्वर एवं लय मिलने से ऊर्जा होमियोस्टेसिस तथा शरीर का फ्यूल मेकानिज्म की आपूर्ति शानदार ढ़ग से होने लगती है। दोनों की सक्रियता से शरीर की ग्रोथ रेसपोन्स तथा ऑटोफेगी प्रोटीन एवं प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। अॅाटोफेगी रिलेटेड प्रोटीन (.टी.जी.एस.) ऑटोफेगोसोम प्रक्रिया के लिए जरूरी है। ऑटोफेगोसोम ऑॅटोफेगी तथा लाइसोसोम से मिलकर बना है।  ऑटोफेगोसोम द्वारा कूड़ा-कचरा जंक कोशांग सेल के लाइसोसोम विभाग में लाया जाता है जहाँ पर अनेक प्रकार हाइड्रोलाइटिक एन्जाइम उन कूड़ा-कचरा को तोड़कर पचा डालती है, तत्पश्चात पुन: काम आने वाली स्वस्थ एवं सक्रिय कोशागों का छांट कर लौटा देती है, जिसे पुन: उपयोग करके नये कोशिकांग में रिसेम्बल कर फिट कर दिया जाता है। ऑटोफेगी एवं लाइसोसोम का सहवादन समन्वय एवं सहभाव का मेल स्वास्थ्य रूपी सितार की दो कुंजी हार्मोन ग्लूकेगॉन तथा इंसुलिन द्वारा संचालित होता है। इंसुलिन की जब वृद्धि होती है। ग्लूकेगान को लेवल कम हो जाता है ग्लूकेगान की जब वृद्धि होती है तो इंसुलिन का लेवल बढ़ जाता है। ग्लूकेगान का लेवल बढ़ने से हाइपरग्लाइसीमिया तथा इंसुलिन का लेवल बढ़ने से हाइपोग्लाइसेमिया होता है। उपवास करने से इंसुलिन का लेवल कम हो जाता है, किन्तु उसकी संवेदनशीलता सेन्सिटिविटी बढ़ जाती है। ग्लूकेगान का लेवल बढ़ने से ऑटोफेगीरिलेटेड प्रोटीन की सक्रियता बढ़ जाती है। ऑटोफेगी की सक्रियता बढ़ने के लिए लिवर ग्लाइकोजिन का लेवल कम होना जरूरी है। जो कम से कम 16 से 18 घंटे के उपवास के बाद ही प्राप्त किया जा सकता है। सबसे ज्यादा ऑटोफेगोसोम प्रक्रिया की सक्रियता 24, 48, 58 तथा 72 घंटे के उपवास के बाद प्राप्त किया जा सकता है। साउथ कैलिफोर्निया के शोधकर्त्ता डॉ. वाल्टर लोगो के अनुसार 72 घंटे के उपवास से प्राप्त ऑटोफेगोसोम प्रक्रिया से तो ब्रेस्ट, स्किन कैंसर, ग्लियोमा तथा न्यरोब्लास्टोमा की गंाठे भी सिकुड़ने लगती हैं। फलत: ऑटोफेगी एवं ऑटोफेगोसोम का प्रक्रिया बढ़ जाती है। ऑटोफेगी प्रक्रिया बढ़ने से लाइपोमा या किसी प्रकार की सामान्य एवं कैंसर गांठ भी क्यों हो पिलपिली होकर मुलायम, छोटी एवं खत्म होने लगती हैं।    
योगग्राम संस्थान में लाइपोमा में जोंक के द्वारा रक्तमोक्षण देते हैं। प्राकृतिक लीच रक्तमोक्षण द्वारा टॉक्सिन्सलाइसिस एवं टॉक्सिक टॉक्सिन्स सक्शन का प्रयोग ऐसे रोगियों पर कमाल का काम करता है। इसका प्रयोग विशेषज्ञ के निर्देशन में करें। 

पतंजलि वैलनेस की आयुर्वेदिक जड़ी-बूटी चिकित्सा

  • पतंजलि करक्युमिन गोल्ड तथा दिव्य सिस्टोग्रीट वटी दो-दो वटी सुबह-शाम लें।
  • कांचनार घनवटी, दिव्य वृद्धिवाधिका वटी तथा दिव्य इम्यूनोग्रीट एक-एक वटी सुबह-शाम लें। लाभ होता है।

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