औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति की चुनौती

औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति की चुनौती

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

  प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने गुलामी के सभी चिन्हों से मुक्ति की आवश्यकता पर बल दिया है। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति का प्रश्न। क्योंकि प्रत्यक्ष रूप में कोई भी उपनिवेश भारत में इस समय नहीं है। अत: जो कुछ भी ब्रिटिश कालीन प्रभाव है, वह बौद्धिक स्तर पर ही सबसे गहरा है। अत: पहले उसकी पहचान आवश्यक है।

ब्रिटिश काल में योजनापूर्वक झूठ भ्रम फ़ैलाये गये

बौद्धिक स्तर पर ब्रिटिश काल में योजनापूर्वक और घोषणापूर्वक भारत के विषय में झूठ फ़ैलाये गये हैं। सबसे पहले तो ईस्ट इंडिया कंपनी के जो मामूली कर्मचारी और बेरोजगार छोकरे जैसे क्लाईव या हेस्टिंग्ज आदि आये। वे चर्च द्वारा फ़ैलाये गये भीषण अज्ञान और झूठ का स्वयं ही शिकार थे। उन्होंने कल्पना कर ली कि यह खुला खेत है और हम इसे जैसे चाहें वैसे उपयोग में ला सकते हैं। इसे उन्होंने ईसा के प्रकाश को फ़ैलाने का नाम दिया जो कि केवल बड़बोलापन था और अपने इस नीरस और थकाऊ तथा खतरों से भरे काम को गरिमा देने की चेष्टा मात्र था। यह कुछ उसी तरह की क्रियाएं थीं, जैसा विपदा के समय पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग कोलकाता जाकर हम्माली करते या रिक्शा खींचते और फ़िर कुछ बचत करके जब गांव लौटते तो अपने काम के विषय में डीगें हांकते थे। क्लाईव आदि वस्तुत: अपने समाज के उपेक्षित और कष्ट में पड़े हुये वर्ग के छोकरे थे और किसी तरह तलवारबाजी वगैरह सीखकर कंपनी की नौकरी में आये थे। उन्हें ठगी, लूट और डकैती का ही अपने समाज में अभ्यास था। क्योंकि उनके पूर्वज यही सब करते थे। अत: यहां अपना काम करते हुये वह उसे भी रेलिजस काम बताकर अपनी हीनता ढ़कते थे। इसलिये उन्होंने आरंभ में ही भारत के विषय में स्वयं अपने देश इंग्लैण्ड में झूठ ही झूठ बोला। पहले तो यह गप फ़ैलाई कि यहां सब घोर अज्ञान की स्थिति है और हमारे लिये ईसा का प्रकाश फ़ैलाना यहां बहुत आसान है। फ़िर यह भी बताया कि यहां कोई भी नियम कायदा या कानून का राज नहीं है। यहां के लोग मनमानी लूटपाट और असभ्यता के अभ्यस्त है और हमें यहां से काली मिर्च तथा अन्य व्यापारिक वस्तुएं इसी तरह हस्तगत करनी होंगी। बंगाल के मुस्लिम जमीदारों को विलासी और आलसी पाकर उन्होंने उनसे उनकी जमीदारी में लगान वसूलने का ठेका लिया और फ़िर इंग्लैण्ड की तरह जहां किसान केवल भू-दास थे, बलपूर्वक मनमानी लगान वसूल कर निश्चित रकम खजाने में जमा कर शेष स्वयं रखने लगे। धीरे-धीरे बंगाल के समाज में जो नीच और दुष्ट किस्म के लोग थे, उनसे दोस्ती बढ़ाकर जमीदार घरानों की जासूसी करने लगे और उनके आपसी झगड़ों के विषय में जानकारी एकत्र कर भेदनीति से काम लेने लगे।
वारेन हेस्टिंग्ज पर जब इंग्लैण्ड की संसद में मुकदमा चला तो उसमें प्रसिद्ध सांसद एडमंड बर्क ने यही आरोप लगाये थे कि इन लोगों ने बंगाल के नीचतम लोगों को साथ लेकर वहां छल कपट किया, फ़रेब किया, नकली अदालतें चलाई तथा प्रभावशाली लोगों की छल से हत्याएं कराई।

हिन्दूओं में आत्मगौरव नष्ट करने के लिए गढ़ा छूटा इतिहास

इस पर स्वाभाविक ही बंगाल के गरीब हिन्दू कंपनी में नौकरी करने आते थे, तब भी वे प्रशंसा केवल अपने राजाओं और रानियों की ही करते रहते थे जिससे कंपनी के कर्मचारियों में हीनता का भाव जगता था। इलियट और डाउसन दोनों यह बात लिखी है और अपनी कथित भारतीय इतिहास की कई खण्डों वाली पुस्तक के प्रथम खण्ड में ही है भूमिका में इस तथ्य का उल्लेख किया है कि यहां के हिन्दूओं में यह जो आत्मगौरव है, उसे नष्ट करने के लिये किसी भी प्रकार ऐसा इतिहास रचना आवश्यक है जिसमें यह बताया जाये कि तुम तो मुसलमानों से मार ही खाते रहे हो और हम तुम्हारे मित्र हैं। इस प्रतिज्ञा के साथ उन्होंने कथित मुस्लिम इतिहास लिखा जिसमें उनके वास्तविक अत्याचारों को सैकड़ों गुना बढ़ाकर प्रस्तुत किया और इसके लिये जब वास्तविक साक्ष्य और अभिलेख नहीं मिले, तो जालसाजी के साथ दूर-दूर ईराक और तुर्की आदि में किसी पाण्डुलिपि के मिलने की बात प्रचारित कर झूठा इतिहास रचा। कासिम जैसे छोकरों को जो इक्कीस साल की उम्र में मर गया, उसे सिंध जैसे विशाल और समृद्ध सेना वाले राज्य का विजेता बताना इसी प्रकार का झूठ है। गजनी और गोरी (जो घूर का निवासी होने से घूरी कहलाता था जिसे बाद में मुसलमानों ने और उनके हिन्दू चेलों ने गोरी कहना शुरू किया) अपने आस-पास के इलाकों की लूटपाट करने वाले दस्यु थे और वे स्वयं अनेक हिन्दू जागीरदारों से बार-बार पिटे। गोगा जी जैसे लोक नायकों ने उन्हें पीटा, इसके व्यापक साक्ष्य होने पर भी इन दोनों को बिना किसी साक्ष्य और प्रमाण के भारत का बादशाह भी प्रचारित कर दिया।

आवश्यक है इतिहास का सच जानना

बाद में जब लूट और मर्यादाहीनता के लोभ में कुछ हिन्दू मुसलमान बनकर लूटपाट करने लगे, तब तेरहवीं शताब्दी से अवश्य मुस्लिम अत्याचार घटित होने लगे। परन्तु तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी ईस्वी तक ऐसा एक भी युद्ध नहीं लड़ा गया जिसमें इन भारतीय मुसलमानों के साथ उनके हिन्दू मित्र सेनापति रहे हों और ऐसा एक भी कथित मुस्लिम शासक नहीं हुआ जिसके राज्य में महत्वपूर्ण पदों पर अनुभवी हिन्दू नहीं रहे हों। परन्तु उन्नीसवी शताब्दी ईस्वी में इसे अधर्मियों और पापियों से स्वधर्मरत भारतीयों का युद्ध बताने के स्थान पर मुस्लिम-हिन्दू संघर्ष की तरह की प्रचारित किया गया और देश में जगह-जगह कुछ मुस्लिम जागीरदारों द्वारा हिन्दूओं के सहयोग से हिन्दू-मुस्लिम साझा शासन होने के तथ्य को मुस्लिम काल में प्रचारित कर दिया गया। इसका शीर्ष उदाहरण जलालुद्दीन मोहम्मद का शासन है जिसने घोषित तौर पर इस्लाम मजहब त्याग दिया था और दीन--ईलाही नाम का एक नया मजहब चलाने की कोशिश कर रहा था और जो सूर्य को अर्ध्य देना तथा गौ-ग्रास निकालना एवं गाय की पूजा करना आदि कृत्य करता था, जिसके प्रधान सेनापति महाराज मानसिंह थे तथा उदयसिंह एवं सुरजन सिंह आदि जिसके अन्य सेनापति थे, उस जलालुद्दीन के शासन को भी भारत में मुस्लिम शासन प्रचारित करा औपनिवेशिक बुद्धि का ही काम है।
अत: औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति के लिये सर्वप्रथम इतिहास का सत्य जानना आवश्यक है। सदा इस तथ्य की खोज और प्रचार होना चाहिये कि स्वयं को इस्लाम को अनुयायी बताने वाले दस्यु दलों ने दुनिया के अन्य क्षेत्रों में जैसी व्यापक सफ़लता पाई, जिसके कारण विगत एक हजार वर्षों में अनेक देश मुस्लिम देश बना लिये गये, वैसी सफ़लता भारत में क्यों नहीं मिली? इस तथ्य को भी सदा स्मरण रखना चाहिये कि पकिस्तान और बांग्लादेश नामक दो नये नेशन स्टेट जो भारत के भीतर शत्रु राज्य के रूप में रचे गये, उनके निर्माण में किसी मुस्लिम विजय जैसी घटना का कोई योगदान नहीं है अपितु वे गांधी जी और नेहरू जी आदि हिन्दूओं के सहयोग से अंग्रेजों की रणनीति के अनुसार बने हैं। अत: उनके बनने को भी मुस्लिम विजय प्रचारित करना औपनिवेशिक बुद्धि का प्रमाण है।
इसी प्रकार 1858 से 1947 ईस्वी के 90 वर्षो में आधे से कुछ अधिक भारत में अंग्रेजों ने भारतीय सेनाओं और भारतीय प्रशासकों की साझेदारी में शासन किया और भारतीय सेना के कारण ही प्रथम और द्वितीय दोनों ही महायुद्धों में वे जर्मनी की चपेट से बच सके, इस तथ्य को भारत की गुलामी के रूप में प्रस्तुत करना औपनिवेशिक बुद्धि का ही लक्षण और प्रमाण है। स्वयं इंग्लैण्ड 100 वर्षोर्ं तक फ्रांस की अधीनता में रहा, परन्तु उस कालखंड को कभी भी इंग्लैण्ड की गुलामी नहीं बताया जाता। वैसे भी अंग्रेजों ने भारत से जाते समय सत्ता का हस्तांतरण भारतीयों को किया। यह बात स्वयं में इसका प्रमाण है कि ये भारतीय उनके अपने सगे और मित्र थे। इसे किसी भी प्रकार दासता का लक्षण नहीं माना जा सकता है। साथ ही उस समय भारत के 100 से अधिक बड़े राज्यों और पांच सौ से अधिक मझोले एवं छोटे राज्यों से ब्रिटिश शासन की संधि थी। संधि को दासता नहीं कहा जाता। अत: स्पष्ट है कि भारत के लोगों में, विशेषकर हिन्दुओं में ग्लानि और हीनता जगाने के लिये ही गुलामी की बात की जाती है अन्यथा इसे इंग्लैण्ड और भारत की अंत: क्रिया ही कहेंगे या भारत-इंग्लैण्ड सन्निकटन की प्रक्रिया ही इसे कहा जायेगा। इसे गुलामी किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय निकर्ष पर नहीं कहा जा सकता। अत: औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति इतिहास के विषय में और आत्मछवि के मामले में जरूरी है। जब स्वयं घटनाओं के घटित होते समय किसी ने इस्लाम की बात या ईसाईयत की बात भारत में नहीं की अपितु हिन्दुओं से व्यापक मित्रता रखते हुये ही सभी मुसलमानों ने प्रतिस्पर्धी हिन्दू शासकों से युद्ध किये और भारतीयों को उनके धर्म पालन में सहायता देने तथा सुशासन देने की घोषणा के साथ संधिपूर्वक 01 नवम्बर 1858 को विक्टोरिया ने मैत्रीपूर्ण परिवेश में अपने हिस्से का शासन चलाने की घोषणा की और स्पष्ट कहा कि वे मित्र भारतीय राजाओं की सीमा में कोई भी हस्तक्षेप नहीं करेंगी और उनके उत्तराधिकार तथा राज्याभिषेक के नियमों में भी कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगी तथा अपने मित्र राजाओं से भी बदले में यही अपेक्षा करती है, तब बाद में उन घटनाओं को गुलामी की तरह प्रस्तुत करना सत्य के विपरीत है।

सैक्युलर होने का झूठा प्रोपेगेण्डा

भारतीय शौर्य विश्व में मान्य है। अत: भारत में सदा राष्ट्रीय शौर्य के विषय में ही शिक्षा देनी चाहिये। ऐसा नहीं करना औपनिवेशिक बुद्धि है। इससे मुक्ति आवश्यक है। भारतीय सेनाओं की प्रथम एवं द्वितीय महायुद्ध में निर्णायक भूमिकों को भारतीय दृष्टिकोण से पढ़ाने की आवश्यकता है।
भारत का वर्तमान संविधान बहुत व्यापक, उदार और लचीला है। इसके द्वारा सभी अभीष्ट कार्य सम्पादित हो सकते हैं। अत: संविधान को सामने रखकर उसके विषय में जो झूठा प्रोपेगेण्डा स्वयं को सेक्युलर कहने वाले कुछ प्रभावशाली लोगों ने चलाया है, उससे मुक्ति भी औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति का एक लक्षण है। भारत का संविधान भारत के लोगों के द्वारा वैधता प्राप्त करता है और उनसे ही शक्ति प्राप्त करता है। अत: भारत के लोगों का जो सबसे बड़ा हिस्सा है, अर्थात् जो हिन्दू समाज है, उसके धर्म और ज्ञान परम्परा का भारत शासन में मुख्य स्थान होना चाहिये। यह इसमें निहित है। यह मानकर कि स्वतंत्र भारत में ऐसा ही होगा, कतिपय लोगों ने जो अन्य मजहब के थे, अपने मजहब के लिये संरक्षण मांगा था। जो हिन्दुओं की ओर से उन्हें दिया गया। परन्तु स्वयं को सेक्युलर कहने वाले लोग या तो स्वभाव से झूठे हैं या संविधान का यह तथ्य उन्हें स्मरण ही नहीं रहता कि इसे भारत के लोगों ने रचा और अंगीकार किया है और इसकी शक्ति का स्रोत भारत के लोग ही हैं जिसका अर्थ है कि इसका सबसे बड़ा स्रोत हिन्दू समाज ही है। उसकी इच्छा और सहमति से ही अल्पसंख्यकों को संरक्षण मिला है। यह भूलकर वे सेक्युलर लोग केवल अल्पसंख्यकों के संरक्षण वाला तथ्य याद रखते या प्रचारित करते हैं। मानो कि वही राज्य का मुख्य कर्त्तव्य है। जिस हिन्दू समाज की सहमति से और अनुमति से यह संरक्षण मिला है, उसे ये सेक्युलर लोग खलनायक की तरह प्रस्तुत करते हैं। इससे इनकी भ्रमित बुद्धि और औपनिवेशिक मानस का पता चलता है। इस औपनिवेशिक मानस से मुक्ति आवश्यक है।
भारतीय ज्ञान परम्परा को ही भारत में शिक्षा का स्वाभाविक और सामान्य आधार होना चाहिये। यही स्वाभाविक है क्योंकि संपूर्ण विश्व में अपने ही राष्ट्र की ज्ञान परम्परा शिक्षा का आधार होती है। फ़िर भारत में तो विशेष कर दर्शन, व्याकरण, भाषा, और साहित्य तथा राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र एवं वित्त शास्त्र में विश्व का सर्वाधिक प्राचीन साहित्य भरपूर है। उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ तक वह देशभर में पढ़ाया भी जाता था। स्वयं अंग्रेजो ने उस शिक्षा की रिपोर्ट प्रस्तुत की है। जो उसी समय प्रकाशित हुई थी और बाद में जिनका पुन: संकलन श्री धर्मपाल ने किया और जो अब अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती में पुस्तकाकार सुलभ है। अत: सभी भारतीय भाषाओं में मानविकी विद्याओं में इन्हीं भारतीयों शास्त्रों की शिक्षा मूल आधार बननी चाहिये। परन्तु औपनिवेशिक बुद्धि के प्रभाव से यह कार्य आज तक नहीं हुआ है। इन विषयों में वस्तुत: यूरोप का ज्ञान केवल विगत 100 वर्षो  में विकसित हुआ है। अत: ऐसा ज्ञान भारतीय शिक्षा का सामान्य आधार नहीं होना चाहिये। जिन्हें यूरोपीय ज्ञान में विशेषज्ञता अर्जित करनी है, उन्हें वह अलग से करनी चाहिये। शिक्षा के सामान्य अंग के रूप में मानविकी विद्याओं में मुख्यत: भारतीय शास्त्र ही पढ़ाये जाने चाहिये। औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति के लिये यह अनिवार्य है।
नरेटिव के नाम पर झूठे प्रोपेगेण्डा की ही बहार है। औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति के लिये ऐसे झूठे प्रोपेगेण्डा से संवाद में समय और शक्ति नष्ट नहीं करनी चाहिये अपितु भारतीय यथार्थ के आधार पर संवाद होना चाहिये। यदि हम इस दृष्टि से देखें तो सार्वजनिक जिज्ञासा और संवाद के मुख्य बिन्दु निम्नांकित ही होंगे-
1.   जैसा कि एंगस मेडीसन की रिपोर्ट बताती है, इतिहास के प्रारंभ से 18वीं शताब्दी ईस्वी तक भारत ही विश्व में आर्थिक दृष्टि शिखर पर था। अत: अध्ययन का विषय यह है कि भारतीय अर्थ व्यवस्था और समाज व्यवस्था की वे कौन सी विशेषताएं हैं जिनके कारण यह स्थिति संभव रही? ताकि उन विशेषताओं को पुन: नया रूप दिया जा सके।
2.   स्वयं को इस्लाम का अनुयायी कहने वालें लोगों ने विश्व के अनेक राज्यों एवं क्षेत्रों में नृशंस हत्याएं करते हुये तथा बर्बर अत्याचारों की पराकाष्ठा करते हुये अपने राज्य स्थापित किये और वहां आज केवल मुसलमानों का राज्य है। क्या कारण है कि भारत में कभी भी पूरी तरह मुस्लिम शासन संभव नहीं हुआ और भारत क्षेत्र में आज भी 120 करोड़ हिन्दू रह रहे हैं तथा शासन का संचालन कर रहे हैं?
3.   ईसाइयत का जन्म मध्य एशिया क्षेत्र में हुआ और इस्लाम का जन्म अरब में हुआ। आज अरब में सऊद घराने का शासन है जो सुन्नी इस्लाम का अनुयायी नहीं है। स्वयं को मुसलमान कहने वाले 50 से अधिक राज्य हैं जो आपस में निरंतर कलहरत हैं। इसी प्रकार मध्य एशिया में जहां ईसाइयत का जन्म हुआ था, वहां आज ईसाइयों का शासन नहीं है। भारत में सनातन धर्म का उदय हुआ और आज भी सनातन धर्म के 120 करोड़ अनुयायी भारत में हैं। अत: भारत की वह कौन-सी विशेषता है जिसके कारण यहां उत्पन्न धर्म परम्परा आज तक आबधित चली रही है?
4.   हिन्दुओं के शताधिक सम्प्रदाय हैं। उनमें से अधिकांश बहुत सशक्त और प्रभावशाली हैं। सबके पास एक से एक गौरव योग्य विभूतियां है। सभी में एक से बढ़कर एक वीरों का जन्म हुआ है। परन्तु वे आपस में सनातन और सार्वभौम नियमों के आधार पर सामंजस्य पूर्वक सपूंर्ण विविधता के साथ सहज जीवन जीते हैं। जबकि ईसाइयत और इस्लाम के अनुयायियों में अलग अलग सेक्ट परस्पर रक्त रंजित युद्ध करते रहे हैं। अत: हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) के वह कौन से आधार तत्व हैं जो इतना वैविध्य पूर्ण और सामंजस्य पूर्ण जीवन जीना सिखाते हैं? जबकि ईसाईयत और इस्लाम भिन्नता को सहन नहीं करते। शिया और सुन्नी आदि तथा कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट आदि ने अपने अलग-अलग नेशन स्टेट बना रखे हैं। जबकि हिन्दुओं के शताधिक सम्प्रदाय एक ही नेशन स्टेट में भली-भांति रह रहे हैं। अत: हिन्दू धर्म का वह क्या मर्म है जो वैविध्य पूर्ण जीवन की विधि सिखाता है और उसे सहज बनाता है?
इन सब बिन्दुओं पर विचार औपनिवेशिक बुद्धि से मुक्ति के लिये आवश्यक है। उसी दिशा में प्रयास होना चाहिये।

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