आचरण की पारदर्शिता का नाम है संन्यास
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स्वामी अरविन्द देव: पतंजलि संन्यासाश्रम
यह पूर्णता और अनंत का मार्ग है। मानव जीवन की यह बड़ी उपलब्धि है। शास्त्र कहते है कि जिस कुल, खानदान में एक भी व्यक्ति संन्यासी हो जाता है तो उनका समूचा कुल पवित्र हो जाता है। संत ही दु:खी लोगों का आश्रय है। सदाचार ही सन्तों का परिचय है, इसलिए प्रत्येक शिष्य का यह धर्म है कि अपने गुरु का प्रियाचरण करें। एक सच्चे गुरु की चाहना हर कोई करता है। गुरु के बिना गति नहीं। एक अक्षर सीखनेवाले गुरु होते हैं। अध्यात्म में गुरु की महिमा अवर्णनीय है।
परम पूज्य स्वामी जी महाराज, परम पूज्य श्रद्धेय आचार्यश्री जी महाराज, परम पूज्या डॉ. आचार्या दीदी जी इनकी प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक शब्द अपने आप में पूर्ण शिक्षा का स्रोत है। वे स्वयं में प्रमाण है। वैदिक सनातन संस्कृति के विश्व युग धर्म के महामानव तारणहार है।
जिस गुरु, महात्माओं ने योग, आयुर्वेद, वैदिक विज्ञान, सनातन शिक्षा पद्धति करोड़ों वर्ष की परम्परा को पुन: प्रतिष्ठित किया, साकार रूप दिया ऐसे गुरु की ऋषि-मुनियों की संतान हम संन्यासी बनकर संपूर्ण समाज में सहायक शाश्वत, चिरंजीवी कार्य करने का हमने संकल्प लिया है।
उन्नति एवं सुख प्राप्ति के साधन से समाज को सुखी, निरोगी बनाना हैं क्योंकि तीन प्रकार की उन्नति होनी चाहिए। (१) शारीरिक उन्नति, (२) मानसिक उन्नति एवं (३) आत्मिक उन्नति।
1. शारीरिक उन्नति में ब्रह्मचर्य, नियमित व्यायाम, योगाभ्यास, शुद्ध तथा पौष्टिक आहार-विहार।
2. मानसिक उन्नति में शिक्षा, सत्संग, स्वाध्याय।
3. आत्मिक उन्नति में ईश्वर, आत्मा, प्रकृति का ज्ञान, कर्मफल पर दृढ़ विश्वास, यम और नियमों का यथावत पालन।
संन्यासी निष्काम कर्म करके समाज में मानवता यानि सभी जाति, पंथ, धर्म के लोगां के लिए कर्म करना हैं, उसमें कोई भेद, जातिवाद नहीं होता है, पुरुषार्थ ही इस जीवन में सब कामना पूरी करना है। मनचाहा सुख उसने पाया जो आलसी बनकर पड़ा न रहे। बाधाएं कब रोक सकी है आगे बढ़ाने वालो को। मौत भी कम डरा सकी है, मर कर जीने वालो को। काम करना तो संन्यासी का काम है, बिना काम के तो संन्यासी नाकाम है। खाली रहने से मन सदा बेसुरी सोचता है, खाली रहने वाला मन शैतान है।
मन से अपना काम करें, हम थककर ही आराम करें, हम संन्यासी और दुसरों को सीखें। कल करना सो आज करें हम, ना पलभर बर्बाद करें हम। जिसकी जितनी बड़ी तृष्णा, वासना या इच्छा है, जो हर समय यह सोचता है कि मुझे यह मिले, मुझे वह मिले। वास्तव में वही दरिद्र हैं। संन्यासी व्रती होता है, व्रत में समाज में सीखता है कि दान देना, तप करना, विद्या पढ़ना। इन तीन वस्तुओं में संतोष न करें। संन्यासी नीति भी सिखाता है। कामुकता के समान कोई व्याधि नहीं, अज्ञान के समान कोई शत्रु नहीं क्रोध के समान कोई अग्नि नहीं, चिन्ता के समान कोई विष नहीं, विद्या के समान कोई साथी नहीं, ज्ञान के समान कोई हितैषी नहीं और संन्तोष के समान कोई सुख नहीं, सम्यक् प्रसन्न होकर निरुद्यम रहना संतोष नहीं किन्तु पुरुषार्थ जितना हो सके, उतना करना। जो लोग दान करते है उनके लिए ऋग्वेद के ऋषि ने कहा है-
एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र.... सन्ति दाशुषे। ऋग्वेद (१.८.९)
हे परमेश्वर ! तेरा ऐश्वर्य और संरक्षण दानी के लिए होता है- महर्षि अंगिरा जी।
यजुर्वेद में- त्यक्तेनं भुञ्जीया:। यजु. (४०.१)
पदार्थों का त्याग भाव से उपयोग कर- महर्षि वायु जी Enjoy The Possessions In A Spirit Of Renunciation
अथर्ववेद में-
शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर- अर्थव. (३.२४.५)
हे सौ हाथ वाले! संचय कर, हे सहस्त्र हाथ वाले उसे बाँट दे। अर्थात् मनुष्य को सौ गुने परिश्रम से उपार्जन कर अनेक स्थानों में बाँट देना चाहिए।
महर्षि अंगिरा जी
संन्यास दीक्षा में गुरु शाश्वत चिरंजीवी संकल्प संन्यासी के लिए ईश्वर को समर्पित करते है कि हे ईश्वर! हमें सन्मार्ग पर ले जा। O lord ! lead us on to the right path. संन्यासी के लिए अच्छे दिन चमके। हमारे से दुर्भाग्य और क्षेत्रिय रोग दूर भागें। मेरा हृदय सन्ताप रहित हो। हमारी सत्य और शुभ इच्छाएं पूर्ण हो। मेरे मन का संकल्प सच्चा हो। ध्यान से सुनने वाले प्रभों! हमारी प्रार्थना को सुनो। हम सौ वर्ष तक जिएँ। may we live for a hundred years. मुझे दरिद्रता के कारण मूर्छा, नग्नता और दुर्बलता तंग करती हैं यह मेरे मन में कभी भी वास नहीं कर सकती क्योंकि मैं संन्यासी व्रती हूँ।
दुष्ट व्यक्ति संन्यासी के ऊपर शासन कभी भी नहीं कर सकता। संन्यासी का संकल्प होता है कि मैं जीवन को आदर्श बनाऊंगा समाज, राष्ट्र को ऊँचा उठाने का भरसक प्रयत्न करूंगा। ईश्वर, माता-पिता व गुरु आदि के ऋण से अऋण होने का सदा यत्न करूंगा। मैं जीवन में आगे बढ़ने, ऊपर उठने, कर्मशील रहने, सूर्य, चन्द्रमा के समान बनने का संकल्प लेता हूँ। उस कारण आयु, बल, बुद्धि, तेज और यश बढ़ता है। यही है व्रत संन्यासी का तात्पर्य, शरीर में बल तब बढ़ता है जब ब्रह्मचर्य का पालन किया जाये, जिससे शरीर से बाहर न जाने पायें और वह वीर्य शरीर को पुष्ट बनायें। ब्रह्मचर्य पालन का विधान है।
जब दिल में बसा दिलदार मेरा तो दिलदार को ढंूढ़ने जाऊ कहाँ।
कण-कण में रमा करतार मेरा करतार को ढूंढ़न जाऊं कहाँ,
गुरु माता, गुरु पिता, गुरु विश्वविधाता बन्धु सखा सारे जग का आधार वही।।
मेरा तो है परिवार वही परिवार को ढूंढ़न जाऊं कहाँ।
हे निराकार वो परमेश्वर जिसका कोई आकार नहीं। मानव की तरहवां साकार है, निराकार को ढूंढ़न जाऊं कहाँ।
संन्यास धर्म संकल्प से ही जीवन शाश्वत अमर बनने वाला है। आचरण की पारदर्शिता है। परमेश्वर के प्रति भक्ति, समग्र व पुरुषार्थ, योग, आयुर्वेद, स्वदेशी व सनातन धर्म को विज्ञान रूप में साकार करना, घर-घर तक विश्वभर में पहुँचाना है। शिक्षा, विद्या को तंत्र के साथ खड़ा करना है। क्रान्तिकारी पराकाष्ठा के साथ संन्यास धर्म को निभाना है। वैराग्य, षट्कर्म सम्पत्ति, सहज ध्यान के प्रति सजग रहना है। धर्मसत्ता, योगसत्ता, अर्थसत्ता, राजसत्ता से, चरित्र, नेतृत्व, समाज का सर्वविधं मंगल करना है।
मराठी में एक संत ने लिखा है- कर्मशील जीवन व्हाते। धर्म त्यामध्यें रक्षावे। हेच असती संत पुरावे श्रुति शास्त्र वेदात।
इसलिए मैंने संन्यास को सहर्ष स्वीकार किया है।
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