जीवन की उत्पत्ति मानव काल गणना और जैव उत्कृष्टता

जीवन की उत्पत्ति मानव काल गणना और जैव उत्कृष्टता

डॉ. चंद्र बहादुर थापा
वित्त एवं विधि सलाहकार- भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं
विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

प्रचलित पञ्चाङ्गों के व्यवस्था

जैन पंचांग पारंपरिक विकर्म या साका कैलेंडर की तरह ही एक चान्द्र-सौर पञ्चाङ्ग है। पृथ्वी के संबंध में चंद्रमा की स्थिति के आधार पर महीने और इसे हर तीन साल में एक बार एक अतिरिक्त महीना (अधिक मास) जोड़कर समायोजित किया जाता है, ताकि मौसम के साथ चरण में महीने लाने के लिए सूर्य के साथ संयोग किया जा सके। इसकी तीथि चंद्रमा चरण को दर्शाता है और महीना सौर वर्ष के अनुमानित मौसम को दर्शाता है।
लुनिसोलर कैलेंडर के व्यवस्था अनुसार एक नियमित या सामान्य वर्ष में 12 महीने होते हैं; एक लीप वर्ष में 13 महीने होते हैं। एक नियमित या सामान्य वर्ष में 353, 354 या 355 दिन होते हैं; एक लीप वर्ष में 383, 384 या 385 दिन होते हैं। एक महीने में दिनों की औसत संख्या 30 है, लेकिन एक लूनिसोलर वर्ष में दिनों की औसत संख्या 354 है और कि 360 (एक वर्ष में 12 महीने) क्योंकि पृथ्वी का चक्कर पूरा करने के लिए चंद्रमा को लगभग 29.5 दिन (30 दिन नहीं) लेता है। इसलिए एक तीथि को दो महीने की अवधि में समाप्त कर दिया जाता है। हिब्रू, हिंदू चांद्र, बौद्ध और तिब्बती कैलेंडर सभी चंद्रविभाजक हैं, और इसलिए 1873 तक जापानी कैलेंडर और 1912 तक चीनी कैलेंडर इसी व्यवस्था अनुरूप थे।
इस्लामिक कैलेंडर एक शुद्ध चंद्र कैलेंडर है क्योंकि इसकी तिथि चंद्रमा चरण को दर्शाती है लेकिन इसके महीने सौर वर्ष या मौसम के चरण के साथ नहीं हैं। यह सूर्य या मौसम के साथ मेल खाने के लिए अपने कैलेंडर को समायोजित नहीं करता है। इसलिए हर तीन साल में कोई अतिरिक्त महीना नहीं जोड़ा जाता है।
ग्रेगोरियन कैलेंडर (अंग्रेजी सीई) एक शुद्ध सौर कैलेंडर है और इसकी तारीख सौर मौसम के समय को इंगित करती है लेकिन चंद्रमा चरण को नहीं।

मानव उत्कृष्टतम जीव

सनातन के शास्त्रों के कालगणना और वर्तमान वैज्ञानिक तथ्यों तथा यह सच्चाई कि, सृष्टि के बायु लगाएत सभी दृश्य-अदृश्य में ऊर्जा और उस ऊर्जा के गतिशीलता से व्युत्पन्न अजीवात् जीवोत्पत्ति (Abiogenesis) सरल कार्बनिक यौगिक जैसे निर्जीव पदार्थों से जीवन की उत्पत्ति की प्राकृतिक प्रक्रिया निरन्तर चलता रहता है। उसी प्रक्रिया से ऊर्जा से उत्पन्न दृश्य-अदृश्यों को अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश तथा अज्ञात जुड़ान-विभाजन सहित मस्तिष्क और सोच-विचार, सम्वेदना, क्रोध, प्रेम, प्रसन्नता, इत्यादि जैसे जटिल अबूझ पहेलियों को जैव पदार्थों में डालने वाले शक्ति को 'ईश्वर तत्व नाम मानव ने दिया' इस सनातनी काल गणना अनुसार 6 पूर्ण  मन्वन्तर और 27 पूर्ण चतुर्युगी के साथ 28वें चतुर्युगी के बीत चुके सत, त्रेता और द्वापर में कलि के बिते हुए 5,124 वर्ष और संध्याकाल जोड़ ने पर 1,97,29,49,129 वर्ष बीत चुके हैं।
किसी को नहीं मालूम की इससे पूर्व के क्या हाल थे अथवा कौन से जैव अथवा पदार्थ थे, अत: कितने जन्म किस-किस रूप में अकोशीय, कोशीय-एक कोशीय अथवा बहुकोशीय, अकशेरु अथवा कशेरु, वनस्पति अथवा प्राणी, सजीव अथवा निर्जीव, आदि-इत्यादि पता नहीं कैसे-कैसे स्वरूप में उस अदृश्य नामित परमेश्वर के प्रयोगशाला में मानव के भी अनेकों प्रकार और स्तर से गुजरते पृथ्वी में संख्या, हाल ही में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) द्वारा जारी विश्व जनसंख्या स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार, लगभग 804 करोड़ 50 लाख है। यह आठ अरब चार करोड़ से अधिक की जनसंख्या अपने अपने कर्मों के आधार पर उत्कृष्ट जीव में पहुंचे जैव की विकास है और प्रतिलोम में भी जा सकते हैं।
मानव उत्कृष्ट है इसका प्रमाण यह है की इस में सजीव, निर्जीव, संवेदनशील-असंवेदनशील, आवेग-संवेग, सद्भावना-दुर्भावना, करुणा-क्रूरता, जड़ता-गतिशीलता, इत्यादि जैसे द्वंदात्मक सभी गुणों की समावेश है। किसलिए आया है अथवा भेजा गया है नहीं मालूम। स्थिति-परिस्थिति अनुरूप अपने अपने लक्ष्य निर्धारित करने की कोशिश करते हैं, फिर भी नियति के हाथ में निरीह हैं, और निरीह होते हुए भी प्रकट-अप्रकट रूप में अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझते-समझते अदृश्य द्वारा नियत समय आने पर अंतिम श्वास लेते हैं। अपनी-अपनी सोच अनुरूप परिवार, ग्राम अथवा शहर, समाज, जिला, राज्य, देश, राष्ट्र अथवा इनके समूह इनमें अनेक संस्था, इत्यादि की संकल्पना करते हुए सदा सर्वदा अंध-संघर्ष में लगे रहते हैं। सन् १९45 तक युद्ध लड़कर राज्य बनाना गर्व की बात थी, संयुक्त राष्ट्र संघ बनने के बाद युद्ध निषेध है, फिर भी युद्ध होते रहते है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सेक्रेटरी जनरल विश्व के सर्वोच्च पदाधिकारी हैं, क्योंकि विश्वभर के सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधि द्वारा चुने जाते हैं, फिर भी पांच स्थायी सदस्यों के प्रभाव में रहते हैं। कुछ वर्षों के अंतराल में औद्योगिक क्रांति, वैज्ञानिक क्रांति, राजनीतिक क्रांति, आर्थिक क्रांति, इत्यादि होती रहती हैं।  फिर स्थानीय स्तर पर अथवा वैश्विक स्तर पर दैवी आपदा, प्राकृतिक उथल-पुथल, महामारी, मानव सृजित दुर्घटनाएं, होते रहते हैं, अंत में प्रलय के साथ समापन के लिए।
परन्तु प्रलय के समय में भी जैव बीज तो रहते ही हैं और उसी से प्रकृतिजन्य परिस्थिति और वातावरण अनुसार परिस्कृत अथवा विकृत अनुवांशिक निरंतरता के लिए जन्म लेते और मरते रहते हैं; जन्म लेने मतलब कर्म भोग और कर्म विस्तारण, नवीन विकास में योगदान और मृत्यु के मतलब भोग और कर्म पश्चात् विश्रांति और अगले प्रकटीकरण के लिए अपने बीज स्वरूप में समेटना, किसने करता है और कैसे और क्यों करता है, नहीं मालूम, किसी को भी नहीं मालूम। कौन क्या बनेगा? क्या करेगा? कैसा कर्म करेगा? और कैसे बीज में परिणत होगा? नहीं मालूम। परन्तु घटना क्रम, युक्ति, तर्क, स्व-अहंकार और स्वविवेक, इत्यादि के आधार पर अपने अपने विचार वेदों-शास्त्रों  पर्यन्त, जैन ग्रन्थ, बौद्ध ग्रन्थ, अवेस्ता, बाइबिल-ओल्ड टेस्टामेंट नई टेस्टामेंट, कुरान, गुरु ग्रंथ, इत्यादि के माध्यम से अपने अपने समूहों को अनुपालन हेतु उनके कल्याण के उद्देश्य से देते हैं। अनादि काल से दैवी और आसुरी शक्तियों के संघर्ष होता रहा है।

 उत्कृष्ट मानव के मापदण्ड

मानव गुणों के पराकाष्ठा के प्रतिरूप भगवान् श्रीकृष्ण को माना गया है। भगवान् श्रीकृष्ण 16 कलाओं के साथ-साथ 64 गुणों से भी संपन्न थे। अत: एक परिष्कृत मानव को सभी कलाओं और गुणों में पारंगत होना चाहिए जो हजारों वर्षों में यदा-कदा अवतरित होते हैं।
16 कलायें- 1. श्री (धन संपदा-अपार धन और आत्मिक रूप से भी धनवान, जिसके घर से कोई भी खाली हाथ जाए), 2. भू (पृथ्वी के राज्य भोगने की क्षमता), 3. कीर्ति (मान सम्मान और यश कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंज, लोगों की स्वत: श्रद्धा और विश्वास), 4. इला (मोहक वाणी-बातों को सुनकर अत्यंत क्रोधी व्यक्ति भी अपनी सुध बुध खो कर शांत हो),  5. लीला (आनंद-जीवन की रोचक और मोहक घटना को सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त हो  जाए), 6. कांति (रूप से स्वत: ही मन आकर्षित होने लगे और प्रसन्न होने लगे), 7. विद्या (वेद-वेदांग के साथ ही संगीत, कला, राजनीति एवं कूटनीति इत्यादि में पारंगत,  8. विमल (मन में किसी भी प्रकार का छल कपट हो), 9. उत्कर्षिनी (प्रेरणा में इतनी शक्ति मौजूद हो, कि लोग उसकी बातों को लेकर प्रेरित हो जाए), 10. ज्ञान (विचारशीलता, जीवन प्रसंग में उपस्थित परिस्थिति एवं कठिनाइयों को विवेकशीलता से सम्हालने तथा बचाव और मार्गदर्शन की क्षमता), 11. क्रिया (इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम करने की सामर्थ्य होने भी, सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हुए लोगों को कर्म करने की प्रेरणा देना), 12. योग (अपने मन को आत्मा में लीन करने की क्षमता- योग बल से श्रीकृष्ण ने माता के गर्भ में पल रहे परीक्षित की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की थीमृत गुरु पुत्र को पुनर्जीवन प्रदान किया), 13. प्रहवि (विनय, कर्ता भाव के अहंकार विहीन), 14. सत्य (कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं, धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करने की कला, रिश्तों की डोर में बंधे होते हुए भी झूठ नहीं बोलते), 15. इसना (व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है),16. अनुग्रह (बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना)
64 गुण- गीतं (1), वाद्यं (2), नृत्यं (3), आलेख्यं (4), विशेषकच्छेद्यं (5), तण्डुलकुसुमवलि विकारा: (6), पुष्पास्तरणं (7), दशनवसनागराग: (8), मणिभूमिकाकर्म (9), शयनरचनं (10), उदकवाद्यं (11), उदकाघात: (12), चित्राश्च योगा: (13), माल्यग्रथन विकल्पा: (14), शेखरकापीडयोजनं (15), नेपथ्यप्रयोगा: (16), कर्णपत्त्र भङ्गा: (17), गन्धयुक्ति: (18), भूषणयोजनं (19), ऐन्द्रजाला: (20), कौचुमाराश्च (21), हस्तलाघवं (22), विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया (23), पानकरसरागासवयोजनं (24), सूचीवानकर्माणि (25), सूत्रक्रीड़ा (26), वीणाडमरुकवाद्यानि (27), प्रहेलिका (28), प्रतिमाला (29), दुर्वाचकयोगा: (30), पुस्तकवाचनं (31), नाटकाख्यायिकादर्शनं (32), काव्यसमस्यापूरणं (33), पट्टिकावानवेत्रविकल्पा: (34), तक्षकर्माणि (35), तक्षणं (36), वास्तुविद्या (37), रूप्यपरीक्षा (38), धातुवाद: (39), मणिरागाकरज्ञानं (40), वृक्षायुर्वेदयोगा: (41), मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधि: (42), शुकसारिकाप्रलापनं (43), उत्सादने संवाहने केशमर्दने कौशलं (44), अक्षरमुष्तिकाकथनम् (45), म्लेच्छितविकल्पा: (46), देशभाषाविज्ञानं (47), पुष्पशकटिका (48), निमित्तज्ञानं (49), यन्त्रमातृका (50), धारणमातृका (51), सम्पाठ्यं (52), मानसी काव्यक्रिया (53), अभिधानकोश: (54), छन्दोज्ञानं (55), क्रियाकल्प: (56), छलितकयोगा: (57), वस्त्रगोपनानि (58), द्यूतविशेष: (59), आकर्षक्रीड़ा (60), बालक्रीडनकानि (61), वैनयिकीनां (62), वैजयिकीनां (63), व्यायामिकीनां (64) विद्यानां ज्ञानं इति, अर्थात-  1.  गानविद्या, 2. वाद्य- भांति-भांति के बाजे बजाना, 3. नृत्य, 4. नाट्य, 5. चित्रकारी, 6. बेल-बूटे बनाना, 7. चावल और पुष्पादि से पूजा के उपहार की रचना करना, 8. फूलों की सेज बनाना, 9. दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना, 10. मणियों की फर्श बनाना, 11. शय्या-रचना (बिस्तर की सज्जा), 12. जल को बांध देना, 13. विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना, 14. हार-माला आदि बनाना, 15. कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना, 16. कपड़े और गहने बनाना, 17. फूलों के आभूषणों से शृंगार करना, 18. कानों के पत्तों की रचना करना, 19. सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना, 20. इंद्रजाल-जादूगरी, 21. चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, 22. हाथ की फुर्ती के काम, 23. तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना, 24. तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना, 25. सूई का काम, 26. कठपुतली बनाना, नचाना, 27. पहेली, 28. प्रतिमा आदि बनाना, 29. कूटनीति, 30. ग्रंथों के पढ़ाने की चातुर्य, 31. नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना, 32. समस्यापूर्ति करना, 33. पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना, 34. गलीचे, दरी आदि बनाना, 35. बढ़ई की कारीगरी, 36. गृह आदि बनाने की कारीगरी, 37. सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा, 38. सोना-चांदी आदि बना लेना, 39. मणियों के रंग को पहचानना, 40. खानों की पहचान, 41. वृक्षों की चिकित्सा, 42. भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति, 43. तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना, 44. उच्चाटन की विधि, 45. केशों की सफाई का कौशल, 46. मु_ की चीज या मनकी बात बता देना, 47. म्लेच्छित-कुतर्क-विकल्प, 48. विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान, 49. शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना, 50. नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना, 51. रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना, 52. सांकेतिक भाषा बनाना, 53. मन में कटक रचना करना, 54. नयी-नयी बातें निकालना, 55. छल से काम निकालना, 56. समस्त कोशों का ज्ञान, 57. समस्त छन्दों का ज्ञान, 58. वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या, 59. द्यू्त क्रीड़ा, 60. दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण, 61. बालकों के खेल, 62. मन्त्रविद्या, 63. विजय प्राप्त कराने वाली विद्या, 64. बेताल आदि को वश में रखने की विद्या।

पुरुष स्त्री गुणेतर सिद्धि

परमपुरुष परमात्मा से मिलन स्तर के जीव में सभी जैव विशिष्ट अवयव रहते हैं जिसके प्रमुख विभाजन पितृत्व और मातृत्व हैं।  पितृत्व में अपने वंश को बचाने, संरक्षण करने की भावना अर्थात् बिज़ संरक्षण के तथा प्रतिरोपण के भाव रहते हैं, इसलिए कठोर दिखते हैं। मातृत्व में बीज को धारण कर पोषित कर ममत्व और करुणा भाव से पालन करने की भावना रहते हैं, अत: कोमल दिखते हैं। जब दोनों के सममिलन से उच्चतम उदाहरण बनता है, परमात्मा के प्रतिरूप मानाजाता है, अत: ईश्वर को अर्द्धनारीश्वर कहते हैं और प्रतिपादित करते हैं। सभी के अंतिम लक्ष्य परमात्मा प्राप्ति ही है। अस्तु।

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