स्वाध्यायात् मा प्रमद: नकारात्मक विचार वायरस स्वाध्याय है एन्टीवायरस

स्वाध्यायात् मा प्रमद: नकारात्मक विचार वायरस स्वाध्याय है एन्टीवायरस

डॉ. अभिषेक कुमार भारद्वाज
सहायक आचार्य-मनोविज्ञान विभाग,
पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार

  आज के हाइटेक उपकरणों से सुसज्जित डिजिटल युग में हाई प्रोफाइल जीवन-शैली की चकाचौंध का मजा सभी लेना चाहते हैं पर इसके प्रभाव बड़े ही भयावह हैं जिससे बालक, किशोर, युवा वृद्ध सभी अवस्था के लोग प्रभावित हो रहे हैं। विद्यार्थी की बात करें तो रूचि संभावनाओं के विपरीत पढ़ाई, कैरियर की चिंता, माता-पिता का तुलनात्मक व्यवहार (पड़ोस के बच्चों से तुलना), कई तरह के दबाव एवं अत्यधिक अपेक्षा से वह घुटन महसूस कर रहा है, अपने को भावनात्मक रूप से अकेला महसूस कर रहा है, भावुक आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है, उसमें परिस्थितियों को झेलने और तनाव सहने की क्षमता कम होती जा रही है। उनका धैर्य, आत्मविश्वास भी कमजोर पड़ता जा रहा है जिससे उनके मन की प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास हो रहा है और उनमें कई तरह की व्यावहारिक विकृतियाँ एवं मनोरोग पैदा हो रहे हैं। इसके मूल कारण हैं- विकृत चिंतन, दूषित दृष्टिकोण असंयम।
आज शरीर की सुरक्षा उचित आहार, औषधियों, सुरक्षा गार्ड आदि के माध्यम से की जा सकती है पर प्रश्न यह है कि मन की सुरक्षा कैसे होगी? व्यक्ति आज अगर सबसे दूर है तो वह सिर्फ अपने आपसे। वह जानता ही नहीं कि वह कौन है और उसके जीवन का उद्देश्य क्या है? और इसी वजह से वह परिस्थिति की उलझनों में कभी-कभी बुरी तरह उलझ जाता है और मानसिक रूप से विक्षिप्त-सा अनुभव करता है। वह अपनी सामर्थ्य का अनुभव कर पाता है; ही भावनाओं विचारों में सामंजस्य स्थापित रख पाता है। अत: आवश्यकता है जीवन में ऐसे तकनीक के अनुप्रयोग की, जो आत्म-विश्लेषण में मददगार हो, जिससे एक व्यक्ति अपनी क्षमता एवं सीमाओं को जान सके तथा उत्तरोत्तर प्रगति पथ पर अग्रसर हो एवं अपने व्यक्तित्व के प्रत्येक आयाम (भावनात्मक, संज्ञानात्मक एवं व्यावहारिक) में एक संतुलन बना सके। भारतीय संस्कृति में 'स्वाध्याय' एक ऐसी ही तकनीक है जिसका प्रयोग कोई भी कर सकता है एवं इससे तनाव प्रबन्धन, विचार प्रबन्धन कर मानसिक आरोग्य की प्राप्ति कर सकता है। प्राचीन समय में ऋषि-आचार्यगुरुकुलीय शिक्षा परम्परा में ज्ञान प्राप्ति हेतु स्वाध्याय को अवश्य शामिल करते थे। वर्तमान समय में भी स्वाध्याय के अनुप्रयोग पर अनुसंधान कार्य हो रहे हैं।

स्वाध्याय की अवधारणा

स्वाध्याय का वास्तविक अर्थ 'स्व का अध्ययन' (To study the selfहै पर व्यक्ति को अपने आप के अध्ययन, अपने सामर्थ्य की जांच करने के लिए सर्वप्रथम उस स्तर का मन बनाना पड़ता है, उस स्तर की चिंतन प्रणाली विकसित करनी पड़ती है और इसके लिए सर्वप्रथम शहीदों-महापुरुषों के जीवन-प्रसंग, योग अध्यात्म से संबंधित साहित्य का अध्ययन कर उसका चिंतन-मनन करके उसे जीवन में उतारने का अभ्यास करना पड़ता है। व्यक्ति उत्कृष्ट स्तर के एवं जीवनोपयोगी साहित्य पढ़ेगा, तभी उसके विचार भी उत्कृष्ट होंगे।
स्वाध्याय स्वयं को जानने की कला है। पातंजल योगसूत्र के व्याख्याकार डॉ. करंबेलकर (1989) स्वाध्याय के संबंध में कहते हैं कि स्वाध्याय के दो अर्थ हैं-
. पवित्र धर्मिक ग्रन्थों को पढ़ना एवं
. स्वयं (के शरीर और मन के आचरण) का अध्ययन (परीक्षण तथा विश्लेषण) करना।
महर्षि पतंजलि ने स्वाध्याय को क्रियायोग के अंतर्गत रखा है तथा इसे समाधि की प्राप्ति में सहायक बताया है। स्वाध्याय अष्टांग योग के द्वितीय अंग 'नियम' का भी एक महत्वपूर्ण भाग है। अपने गहरे अर्थ में स्वाध्याय मानसिक संरचना के पुनर्निमाण के लिए किया जाने वाला समर्थ प्रयास है।
स्वाध्याय चिकित्सा विचारों की, विचारों से काट की धारणा पर आधारित है। इस महत्वपूर्ण सूत्र द्वारा कोई भी अपने नकारात्मक विचारों के सघन जाल को सकारात्मक विचारों द्वारा काटकर अपना व्यक्तित्व निर्माण कर सकता है। स्वाध्याय को अध्यात्म जगत में चिकित्सा का स्थान दिया गया है। स्वाध्याय मानसिक आरोग्य एवं वैचारिक संवर्धन के लिए आवश्यक है क्योंकि मन और विचार के शुद्ध, परिष्कृत हुए बिना स्वस्थ शरीर शालीन व्यवहार की कल्पना नहीं की जा सकती। स्वाध्याय के द्वारा पहले मन स्वस्थ होता है, फिर जीवन।
यह सच है कि यदि दृष्टिकोण को स्वस्थ बना लिया जाये तो जीवन के सभी आयाम अपने आप ही स्वस्थ हो जाते हैं। स्वाध्याय इसी दृष्टिकोण की चिकित्सा करता है। आदमी जिस तरह का साहित्य पढ़ता है उसकी विचारधारा उसी तरह की हो जाती है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जिस प्रकार व्यायाम की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए सद्ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता होती है।
संसार में जितने भी महापुरुष, वैज्ञानिक, सन्त, ऋषि आदि हुए, वे सभी स्वाध्यायशील थे, जिस वजह से वे कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य और प्रसन्नता का जीवन जी सकने में समर्थ होते थे। स्वाध्याय स्वविकास का एक बहुत अच्छा साधन है। प्राचीन काल में ऋषि अपने शिष्यों को 'स्वाध्यायात् मा प्रमद:' का सूत्र अवश्य सिखाया करते थे जिसका अर्थ है- स्वाध्याय द्वारा योग्यता बढ़ाने में कभी प्रमाद मत करना।
स्वाध्याय के लाभ
नियमित स्वाध्याय करने से वास्तव में दृष्टिकोण परिष्कृत होता है। स्वाध्याय के द्वारा व्यक्ति अच्छे विचारों को धारण करता है। अच्छे विचारों के धारण करने से ही कुविचार दूर होते हैं।
स्वाध्याय चिकित्सा के लाभ निम्नांकित हैं-
  • स्वाध्याय से हमें नए-नए विचार मिलते हैं जिससे हमारी सोच में परिवर्तन होता है, व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण करने का तरीका बदलता है, जिससे व्यक्ति को समस्या-समाधान में, निर्णय लेने में मदद मिलती है।
  • स्वाध्याय में जब व्यक्ति चिंतन-मनन द्वारा बार-बार आत्मनिरीक्षण करता है तो उससे उसे अपने 'स्व' का बोध होता है, उसे अपने छिपी हुई क्षमताओं का पता चलता है जिससे रचनात्मकता बढ़ती है, आत्मविश्वास बढ़ता है।
  • स्वाध्याय से धीरे-धीरे अपनी वास्तविक दशा का पता चलता है तथा अहं भाव भी क्रमश: घटता है।
  • स्वाध्याय व्यक्ति को मनोविकारों, चिंताओं और दु:खों से बचाए रखता है।
  • ऐसा देखा गया है कि जब दिमाग, चिंता और मानसिक उलझनों से परेशान हो रहा हो तो ऐसे समय में अच्छी पुस्तकों का अध्ययन उन चिन्ताओं उलझनों को अपने आप ही दूर कर देता है।
  • नित्य स्वाध्याय करने वाला व्यक्ति दु:खों के पार हो जाता है (महाभारत-शांतिपर्व)
  • स्वाध्याय करने वाले व्यक्ति को कभी एकाकीपन का भाव नहीं आता।
  • नियमित स्वाध्याय से सही समझ (विवेक) विकसित होती है। यह वैराग्य का भाव विकसित करने में भी सहायक है जिससे व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त करता है क्योंकि योग में राग को हमारे दु:खों का कारण माना गया है।
स्वाध्याय स्वविकास का उत्तम साधन एक।
उर्ध्वमुखी जीवन रखे, नीर-क्षीर सुविवेक।।
''स्वाध्यायां मा प्रमद:' सूत्र रखे बुनियाद।
अपने शिष्यों से सहज, ऋषियों का संवाद।।
स्वाध्याय से संतुलित होता है व्यक्तित्व।
आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावान अस्तित्व।।
सही समझ विकसित करे, फले योग-वैराग्य।
रामबाण की तरह यह, मानव का सौभाग्य।। (बागी, 2023)
उपरोक्त तथ्यों के द्वारा हम यह कह सकते हैं कि स्वाध्याय चिकित्सा के द्वारा अपनी मानसिकता को परिष्कृत-परिमार्जित कर स्वस्थ एवं श्रेष्ठ विचारों से सम्पन्न किया जाता है। विचार शक्ति संसार की सबसे श्रेष्ठ शक्ति है। जो व्यक्ति जैसा सोचता है, वह वैसा ही बन जाता है।
हमारा मन, मस्तिष्क का सॉफ्टवेयर है तथा हमारा मस्तिष्क मन का हार्डवेयर है। मन-मस्तिष्क पर हर क्षण करोड़ों विचार-तरंगों की बमवर्षा होती है। हमारे मन को नकारात्मक विचार प्रभावित भी करते हैं, उद्वेलित भी करते हैं, क्योंकि यह नकारात्मक विचार एक वायरस की तरह होता है। इस वायरस को स्कैन करने के लिए तथा नष्ट करने के लिए एन्टीवायरस की आवश्यकता भी होती है। योग साधना, स्वाध्याय यहां एक एन्टीवायरस की ही तरह कार्य करते हैं अगर उसका नियमित अभ्यास किया जाय। स्वाध्याय का नियमित अभ्यास हमें आत्म-विश्लेषण के लिए प्रेरित करता है जिससे विचारों का प्रबन्धन होता है।
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