एंटीबायोटिक जान बचाने वाले या मारने वाले?

एंटीबायोटिक जान बचाने वाले या मारने वाले?

भाई राकेश 'भारत’, सह-संपादक

एवं मुख्य केन्द्रीय प्रभारी भारत स्वाभिमान

  • एक्सपर्ट अब मानने लगे हैं कि एंटीबायोटिक जान बचाने का नहीं बल्कि जान लेने का काम करेंगे
  • खेती में भी बड़ी संख्या में हो रहा है एंटीबायोटिक का इस्तेमाल
  • कोरोना काल में एंटीबायोटिक की हैवी डोज का प्रयोग अंधाधुंध हुआ जिससे एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस पैदा हुआ
हमारे शरीर में होते हैं अनगिनत गुड बैक्टीरिया
हमारे शरीर में लाखों करोड़ों अरबों खरबों की संख्या में ऐसे अनगिनत सूक्ष्म जीवाणु या बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो हमारे हुमन माइक्रोबायोम का निर्माण करते हैं। अकेले मुंह के अंदर ही 600 करोड़ सूक्ष्म जीवाणु निवास करते हैं जो हमारी लार, दांत, जीभ गले के अंदर पाए जाते हैं। जब हम सुबह-सुबह उठकर गुनगुना पानी पीते हैं तो यही मुंह में बने प्रोबायोटिक हमारे पेट में चले जाते हैं और आंतों की सफाई करने का काम करते हैं।
इसी प्रकार हमारे पेट में काफी मात्रा में एसिड बनता है। इसी एसिड में पलने वाले बैक्टीरिया हमारी आँतों को घाव से बचाकर उनको स्वस्थ रखने में सहयोग देते हैं, पेट की एसिडिटी को ठीक रखते हैं तथा हमारे डाइजेस्टिव सिस्टम को चुस्त-दुरुस्त रखते हैं।
हमारी छोटी आंत, बड़ी आंत इंटेस्टाइन के अंदरूनी सतह पर भी बैक्टीरिया का पूरा सा बिछा रहता है जो हमारे शरीर में विटामिन बनाने के अलावा भोजन को पचाने में बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं। हमारे शरीर में पाए जाने वाले यह गुड बैक्टीरिया हमारे शरीर की इम्यूनिटी को बढ़ाते हैं। हमारे सिर से लेकर पैर तक सब जगह बैक्टीरिया का खजाना छिपा होता है जो हमारे शरीर को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण योगदान देता है। हमारे शरीर में पाए जाने वाले यह बैक्टीरिया हमारे दोस्त हैं।
आज आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है कि हमारा मानव शरीर कीटाणुओं और जीवाणुओं का एक बहुत बड़ा समूह है। वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे शरीर में सूक्ष्म जीवों की संख्या मानव शरीर की कुल कोशिकाओं की संख्या से भी 10 गुना ज्यादा है और इन सूक्ष्म जीवों की कुल जींस की संख्या मानव के जींस की संख्या का लगभग 100 गुना है। अर्थात् सरल भाषा में कहें तो यह कीटाणुओं और जीवाणुओं के समूह को माइक्रोबायोडाटा और उनके सारे जींस को नई पीढ़ी के वैज्ञानिकों ने माइक्रोबी नाम दिया है और जैसे-जैसे रिसर्च होती जाती है तो वैज्ञानिक इसे बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। और इसको जीनोम कहा है अर्थात् हमारा शरीर के अंदर इनका महत्व वैसे ही है जैसे हमारे शरीर में अपने मानवीय जेनेटिक स्ट्रक्चर अर्थात जींस का है।
 माइक्रोबायोम को अब तो मानव शरीर का एक भूला हुआ अंग भी कहा जा रहा है यही  माइक्रोवेव हमारी मेटाबोलिज में भोजन को पचाने से लेकर विटामिन बनाने से लेकर हानिकारक जीवो से लड़ने के लिए बहुत बड़ी भूमिका निभाता है और एंटीबायोटिक इस माइक्रोबायोम को नष्ट करके हमारे शरीर को कमजोर कर के रोग प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट करके बीमार करने का काम करते हैं
 जर्म्स थ्योरी  का सच
19वीं शताब्दी में लुइ पाश्चर ने रोगों का कारण कीटाणु होते हैं इस जर्म्स थ्योरी का प्रतिपादन  किया। 1928 में अलेक्जेंडर फ्लैमिंग ने प्रथम एंटीबायोटिक पेनिसिलिन की खोज की, 1946 में एंटीबायोटिक का व्यापक प्रयोग शुरू हुआ। पेनिसिलिन को पाकर पूरी दुनिया ने दुनिया के वैज्ञानिकों और डॉक्टरों ने यह सोचा कि अब तो हमारे हाथ में ऐसा ब्रह्मास्त्र गया है अब कोई भी रोग नहीं हो सकता और एंटीबायोटिक का खूब प्रयोग करना शुरू किया।
0 अप्रैल 2014 को डब्ल्यूएचओ ने अधिकारिक तौर पर सभी एंटीबायोटिक के निष्प्रभावी होने और टोटल एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस पैदा होने तथा पोस्ट एंटीबायोटिक ईरा युग आने की घोषणा कर दी।
लुई पाश्चर ने भी बाद में अपनी भूल का एहसास करते हुए जन्म स्टोरी को गलत बनाया था। लेकिन फार्मा लोभी ने अंधाधुन एंटीबायोटिक का प्रयोग जारी रखा, नतीजा आज 2022 आते-आते एंटीबायोटिक का असर खत्म हो चुका है और 2050 में सबसे बड़ा खतरा एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस का है।

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जीवाणु का जीवन चक्र
यदि किसी भी जीवाणु प्रशिक्षणजीव के लाइफ साइकिल के जीवन चक्र को देखें। जैसे ही हम उसकी वाणी को मारने के लिए कोई एंटीबायोटिक देते हैं। अगली पीढ़ी में वही जीवाणु अपने आप को उस एंटीबायोटिक से लड़ने के लिए तैयार कर लेता है और एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस पैदा कर लेता है।
अकेले सीकर जिले का उदाहरण
सीकर से एक रिसर्च रिपोर्ट छपी जिसमें पाया गया कि 6 साल में अकेले सीकर जिले में एंटीबायोटिक की 3 गुना ज्यादा खपत बढ़ गई। नतीजा लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता घट गई और 1 साल के अंदर तीन हजार से ज्यादा नए किडनी के रोगी पाए गए।
शहद एंटीबायोटिक से ज्यादा असरदार
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने एक शोध किया इसमें श्वास नली में होने वाले संक्रमण के इलाज में एंटीबायोटिक की जगह शहद का प्रयोग किया। दिन में दो बार एक चम्मच शहद खाने से सर्दी, जुकाम, खांसी गले की खराश, सीने में जकड़न आदि की समस्या हफ्ते भर में दूर हो जाती है। शोधकर्ताओं ने श्वास संक्रमण के इलाज में शहद और एंटीबायोटिक की तुलना का असर बताने वाले 14 रिसर्च पेपर का विश्लेषण करके बताया कि शहद खांसी, कफ, गले की खराश, सीने की जकड़न में दर्द निवारक दवाओं से भी कई गुना ज्यादा कारगर है और शहद का प्रयोग करने वालों को आधुनिक दवाओं से होने वाले बेचैनी, सुस्ती, थकान, हाथ-पैरों में झनझनाहट और चिड़चिड़ापन जैसे साइड इफेक्ट भी नहीं झेलने पड़ते। रिसर्च वैज्ञानिकों ने पाया कि शहद में जो हाइड्रोजन पराक्साइड कंपाउंड है, जो अपने एंटीवायरल गुणों के लिए जाना जाता है।
शहद एंटीबायोटिक की तुलना में 36 प्रतिशत ज्यादा प्रभावी पाया गया। आयुर्वेद की प्राचीन औषधि शहद को सुपरबग से लड़ाई में भी एक कारगर हथियार पाया गया। डॉक्टरों को सर्दी, जुखाम के मरीजों को एंटीबायोटिक की जगह शहद खाने की सलाह देनी चाहिए। रिसर्च वैज्ञानिकों ने आगे कहा कि इंफेक्शन में वायरस जिम्मेदार होते हैं ना कि बैक्टीरिया। ऐसे में सर्दी जुकाम से राहत के लिए एंटीबायोटिक की सलाह देना केवल गलत ही नहीं है, बल्कि निष्प्रभावी भी है क्योंकि शहद एक प्रभावी सस्ता और टिकाऊ इलाज है।
 एंटीबायोटिक से कमजोर हो रही आंखें
पीजीआई लखनऊ के डॉक्टरों के एक शोध ने बताया की टीवी की बीमारी के इलाज में प्रयोग होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं के कारण नजर कमजोर हो रही हैं। एंटीबायोटिक के अत्यधिक प्रयोग से व्यक्ति को धुंधला दिखाई पड़ रहा है। एंटीबायोटिक नजर की नस को कमजोर करने का काम करती है।
90% तक भारत में एंटीबायोटिक फेल
भारत के मध्य प्रदेश के एक शहर इंदौर में सितंबर 2021 के महीने की एंटीबायोटिक दवाओं के असर की रिपोर्ट का एनालिसिस किया गया जिसमें पाया गया कि 30 से 40% लोग ऐसे हैं जिन पर अब किसी तरह की एंटीबायोटिक असर नहीं कर रही। वहीं कुछ दवाएं तो ऐसी हैं जो 90% लोगों पर असर नहीं कर रही। मेदांता हॉस्पिटल के माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉक्टर कमलेश पटेल कहते हैं कि बैक्टीरिया अब दवाइयों को चकमा दे रहा है। 100 से ज्यादा एंटीबायोटिक दवाइयां हैं जिनका रजिस्टेंस देखा जा रहा है। कुछ दवाइयां ऐसी हैं कि यदि 100 मरीजों के सैंपल की जांच की जा रही है तो मुश्किल से केवल 5 से 6 मरीजों पर ही अपना असर दिखा रही हैं। जैसे कि एक एंटीबायोटिक एंपीसिलीन केवल 4.5% लोगों पर ही असर कर रही है, 95% लोगों पर बेअसर हो चुकी है। ऐसे ही कंट्रीमक्सोजोल केवल 8% पर असर कर रही है और 92% पर बेअसर हो चुकी है।
कम उम्र के बच्चों के लिए घातक एंटीबायोटिक
अमेरिकी शोधकर्ताओं ने 14,500 बच्चों पर एक रिसर्च करने के बाद बताया कि छींक आते ही जो बच्चों को माता-पिता एंटीबायोटिक खिलाते हैं। यही एंटीबायोटिक आगे चलकर उन बच्चों में अस्थमा, एग्जिमा सहित अन्य एलर्जी  होने की संभावना बढ़ा देता है। जिन्हें 2 साल से कम उम्र में एंटीबायोटिक दवाई खिलाई जाती हैं, उनको आगे जाकर बीमार होने का खतरा बढ़ जाता है।
अमेरिका के मेयो क्लीनिक की रिसर्च कहती है कि जो कम उम्र में एंटीबायोटिक खाते हैं उनको लंबे समय तक परेशान करने वाली बीमारियों जैसे अस्थमा, एग्जिमा, मोटापा, एकाग्रता में कमी, आक्रामक व्यवहार आदि में सीधा संबंध देखने को मिला है। मुख्य शोधकर्ता नाथ अमली ब्रेजर कहते हैं कि एंटीबायोटिक का निर्माण बुरे बैक्टीरिया को खत्म करने के लिए किया गया था लेकिन यह पेट और आंत के गुड बैक्टीरिया को भी नष्ट कर देते हैं जिससे शरीर की इम्यूनिटी कम हो जाती है। आज हर 15 मिनट में एक अमेरिकी की मौत केवल एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस के कारण हो रही है।
वर्ल्ड एंटीबायोटिक अवेयरनेस वीक में कम से कम एंटीबायोटिक के प्रयोग की सलाह
एंटीबायोटिक के नुकसान को देखते हुए हर साल 18 से 24 नवंबर को विश्व स्वास्थ्य संगठन वर्ल्ड एंटीबायोटिक अवेयरनेस वीक मनाता है जिसमें लोगों को बताया और सिखाया जाता है कि बिना जरूरत के एंटीबायोटिक लें और चिकित्सक भी एंटीबायोटिक का इस्तेमाल कम से कम करें।
लंबे समय तक एंटीबायोटिक से अल्जाइमर का खतरा
हॉवर्ड यूनिवर्सिटी कैंब्रिज मैसाचुसेट्स और यूएस यूनिवर्सिटी शिकागो के शोधकर्ताओं ने एक रिसर्च में यह पाया कि जो महिलाएं 50 साल की उम्र में कम से कम 2 महीने तक एंटीबायोटिक दवाई लेती हैं उनके मस्तिष्क की कार्यप्रणाली ध्यान और मेमोरी पावर पर प्रभाव पड़ता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन करने से व्यक्ति की याददाश्त धीरे-धीरे कमजोर होना शुरू हो जाती है। 14,000 से अधिक अमेरिकी नर्सों पर यह शोध किया गया और यह पाया गया कि क्या एंटीबायोटिक का सेवन महिलाओं में अल्जाइमर का भी खतरा उत्पन्न कर सकता है।
 80% मरीजों को बिना जरूरत के दी जा रही है एंटीबायोटिक
कानपुर के हैलट हॉस्पिटल में भर्ती मरीजों के बारे में यह जानकारी मिली कि 80 फ़ीसदी मरीजों को 5 की जगह 10 से अधिक दिन की हाईपोटेंसी और एडवांस एंटीबायोटिक दी जा रही है। यह पाया गया कि जिन मरीजों को सैकेंड लाइन एंटीबायोटिक की जरूरत थी, उनको थर्ड लाइन एडवांस एंटीबायोटिक दी जा रही है। मरीज जब तक भर्ती रहते हैं, तब तक एंटीबायोटिक चलती रहती है। वहीं दूसरी ओर यह देखा गया कि कल्चर रिपोर्ट में 70 फ़ीसदी एंटीबायोटिक रजिस्टेंस मरीज मिले। प्राइमरी और सेकेंडरी लाइन की एंटीबायोटिक अधिक रजिस्टेंस मिली।
अंधाधुंध सेवन से टीबी पर बेअसर हो रही है एंटीबायोटिक दवाई
टीबी दोबारा से एक महामारी के रूप में उभर रही है। कानपुर के ही एक हॉस्पिटल में जांच करने पर यह पाया गया की अंधाधुंध एंटीबायोटिक दवाएं खाने से टीबी के एमडीआर रोगियों पर दवाएं बेअसर हो रही हैं। बीमारी के इलाज में ओफ्लाक्सासिन एंटीबायोटिक का ज्यादा इस्तेमाल सबसे बड़ी बाधा है। एमडीआर रोगियों के इलाज की खुराक में ऑफलाइन है लेकिन पहले से रोगी इसको खाते रहते हैं तो यह असर नहीं दिखा पा रही शोधकर्ता बताते हैं कि रिजर्व कैटेगरी के एंटीबायोटिक का प्रयोग सामान्य मरीजों पर करने से गंभीर बीमारी होने पर वह एंटीबायोटिक अपना असर करना बंद कर देती हैं।
भारत की नदियों के पानी में भी एंटीबायोटिक की मात्रा
टॉक्सिक लिंक नाम के एक गैर सरकारी संगठन ने 2020-21 में राजधानी दिल्ली की यमुना, लखनऊ की गोमती, गोवा की जुआरी, चेन्नई की कुउम नदी के पानी के नमूने लेकर परीक्षण किया तो पाया कि सभी नदियों में 33 एंटीबायोटिक ओफ्लाक्सासिन, नारफ्लाक्सासिन और सल्फ़ामेथाक्साजोल के रसायन पाए गए तथा दु:खद यह है इन हानिकारक रसायनों की जो मात्रा पानी में पाई गई वह निर्धारित मात्रा से 2 से 5 गुना ज्यादा है। नदियों में यह एंटीबायोटिक 3 तरह से पहुंच रहे हैं- पहला मानव के मल मूत्र से, दूसरा दवा कंपनियों के दूषित पानी से तथा तीसरा कचरे में मिलने वाली एक्सपायर या पुरानी दवाओं से।
नदी के पानी में इन रसायनों के कारण मछलियों में लिंग निर्धारण नहीं हो पाता तथा पानी पीने से यह एंटीबायोटिक हमारे शरीर में जाकर एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस पैदा करते हैं जिससे हम बहुत जल्दी बीमार पड़ते हैं और बाद में खाई जाने वाली एंटीबायोटिक हमारे ऊपर असर नहीं करती।
दुनिया की नदियों में एंटीबायोटिक
दुनिया भर के 86 संस्थानों के 127 वैज्ञानिकों ने नदियों में प्रदूषण पर अब तक का सबसे बड़ा शोध किया जिसमें 104 देशों की 258 नदियों के शोध से यह जानकारी मिली कि नदियों में एंटीबायोटिक से प्रदूषण बढ़ रहा है। नदियों में एंटीबायोटिक का स्तर अधिक देखा गया जिससे जीवाणुओं में रजिस्टेंस बनने की संभावना अधिक है नदियों के पांच में से एक फल पर नमूनों में एंटीबायोटिक की मौजूदगी खतरनाक स्तर पर थी सबसे ज्यादा मिर्गी रोधी दवा मिली इसके अलावा नदियों में मधुमेह की दवा मेटफॉर्मिन और कैफीन भी बड़ी मात्रा में मिली इन हानिकारक दवाओं से दुनिया भर में 47 करोड लोगों का जीवन प्रभावित हो सकता है.
टाइफाइड काजीवाणु बना एंटीबायोटिक प्रतिरोधी
अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया की पूरी दुनिया में एक करोड़ लोग हर साल टाइफाइड से संक्रमित होते हैं और 1,00,000 से अधिक लोग मारे जाते हैं। टाइफाइड पैदा करने वाला जीवाणु सबसे अधिक उपयोग में आने वाली एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति तेजी से रजिस्टेंस डेवलप कर रहा है जिससे टाइफाइड की एंटीबायोटिक काम नहीं कर पा रही। पिछले 30 सालों में भारत जैसे देशों में तेजी के साथ ऐसे बैक्टीरिया के वैरीएंट फैल रहे हैं। 2014 से 2019 के बीच भारत बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान में टाइफाइड रोगियों से एकत्र किए हुए 3,000 से ज्यादा इस प्रकार के नमूनों का अध्ययन किया। उन्होंने 1950 से 1918 के बीच 70 से अधिक देशों से अलग-अलग एसटीके नमूने के आंकड़ों का विश्लेषण किया तो यह पाया की यह वैरीएंट 200 से अधिक देशों में फैल चुका है तथा वैश्विक समस्या का रूप ले चुका है। ऐसे टाइफाइड के जीवाणुओं को मल्टीड्रग रजिस्टेंस एमडीआर के रूप में वर्गीकृत किया गया। उनमें ऐसे जींस पाए गए तो उन्हें एंपीसिलीन, क्लोरेंपनीकोल और सल्$फामेथाक्साजोल जैसी दवाओं के प्रतिरोधी बनाते हैं।
समुद्र में भी खतरनाक अंग्रेजी दवाएं
अमेरिका की फ्लोरिडा के तट पर एक बोनफिश में 17 प्रकार की दवाइयां मिली। इंसानों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली ऐसी दवाई जिनको एक्सपायर होने के बाद पानी में फेंक दिया जाता है उन्हें लेकर अमेरिकी शोधकर्ताओं ने एक बड़ा खुलासा किया है। उन्होंने बताया कि एक ही मछली के भीतर 17 प्रकार की दवाई पाई गई, इन 17 एलोपैथिक फार्मास्युटिकल्स की दवाओं में रक्तचाप, प्रोस्टेट, एंटीबायोटिक और पेन किलर शामिल हैं। इन दवाओं के कारण मछलियों का प्रजनन बंद हो सकता है और यह केवल अमेरिका में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में है। यह अंग्रेजी दवाएं पानी में रहने वाले जीव जंतुओं के लिए एक गंभीर खतरा बनी हुई हैं।
एंटीबायोटिक से होती है हर साल 7,00,000 की मौत
क्या एंटीबायोटिक का कोई इलाज नहीं है?
आयुर्वेद में किसी भी प्रकार की जन्म थ्योरी को मान्यता नहीं दी गई है। आयुर्वेद में जो सर्जरी होती थी उसमें बिना एंटीबायोटिक के ही प्राकृतिक औषधियों के माध्यम से शरीर की इम्युनिटी को विकसित करके संक्रमण से बचाया जाता था। अभी मेरठ के 1 ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉक्टर संजय जैन ने इसका हल खोजने की कोशिश की है। पतंजलि योगपीठ के आयुर्वेद शिरोमणि आचार्य बालकृष्ण जी से परामर्श करके आयुर्वेदिक नुस्खे के इस्तेमाल से एक नहीं बल्कि कई ऑपरेशन सफलतापूर्वक संपन्न किए जिसमें मरीजों को एंटीबायोटिक दवाओं की जगह महर्षि चरक के नुस्खों से तैयार आयुर्वेदिक दवाएं ही दी गई। डॉक्टर संजय जैन जो खुद एलोपैथी के चिकित्सक हैं लेकिन उनको एंटीबायोटिक के आने वाले खतरे के बारे में संपूर्ण जानकारी है। उन्होंने 82 साल के मरीज ओजस्वी शर्मा का प्रोस्टेट का ऑपरेशन किया। छह डॉक्टरों की टीम ने ऑपरेशन करके संक्रमण से बचाव के लिए एंटीबायोटिक की जगह पंचतिक्त घृत, गूगल, त्रिफला, हल्दी के तेल, गिलोय एवं आरोग्यवर्धिनी वटी का फार्मूला आजमाया गया। प्री-ऑपरेशन और पोस्ट-ऑपरेशन यानी ऑपरेशन से पहले और ऑपरेशन के बाद दी जाने वाली दवाओं की डोज तय की गई। प्रयोग बिल्कुल सफल रहा। मरीज को कोई संक्रमण नहीं हुआ। ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉक्टर संजय जैन जी कहते हैं कि आज के समय में एडवांस मैरोपिनम जैसी तमाम एंटीबायोटिक दवाएं फेल हो रही हैं या फिर साइड इफेक्ट के रूप में मानव के अंगों पर बुरा असर डाल रही हैं। एंटीबायोटिक के ज्यादा इस्तेमाल से इम्यूनिटी खत्म होने के साथ-साथ अच्छे बैक्टीरिया खत्म हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में महर्षि चरक, सुश्रुत के तरीके से आयुर्वेद के रास्ते से प्राकृतिक (नेचुरल) का प्रयोग करना एक नई राह खोल सकता है।
डॉक्टर संजय जैन जी के इस रिसर्च को रिसर्च जर्नल आयुर्वेदा एंड इंटीग्रेटिव मेडिसिन में छापने के लिए स्वीकृत कर दिया गया है।

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