वैदिक समाज

वैदिक समाज

महामहोपाध्याय डॉ. महावीर अग्रवाल

प्रति-कुलपति, पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार

   वेद विश्वकल्याण के लिए परमपिता परमात्मा द्वारा सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों के विमल अन्त:करणों में प्रकाशित पवित्रतम् ज्ञान है। 'सर्वज्ञानमयो हि :’, 'सर्वं वेदात् प्रसिध्यति’, 'वेदोऽखिलोधर्ममूलम्’, 'ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्म: षडङ्गोवेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च इत्यादि ऋषियों के अमृतवचनों से वेदों की महिमा जानी जा सकती है।
देशोद्धारक, समाजसुधारक आदित्य ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द ने सन्देश दिया- 'वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना, पढ़ाना और सुनना, सुनाना सब का परमधर्म है।
वेद किसी देश, धर्म, जाति, सम्प्रदाय अथवा वर्ग विशेष के लिए नहीं, अपितु प्राणिमात्र का कल्याण करने वाले हैं। यद्यपि वेद रूपी मन्दाकिनी का उद्गम भारत देश है, किन्तु इसमें चिन्तन समग्र विश्व का है। 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम् यह वैदिक ऋषियों का उद्घोष है। वेद का सन्देश है- 'शृण्वन्तु विश्वेऽमृतस्य पुत्र:’ अर्थात् हे मेरे अमृतपुत्रों! आप सब कल्याणी वेद वाणी का श्रवण करो। 'यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् वेद की अवधारणा है कि यह सारा विश्व एक घोंसला है। जैसे एक घोंसले में अनेक पक्षी परस्पर प्रीतिपूर्वक निवास करते हैं, ऐसे ही हम सब मानव विश्व को अपना नीड (घर) मानकर प्रेम से रहें।
संसार रूपी भव्य प्रासाद के पांच सोपान हैं- व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व।
चारों वेदों में इन पांचों के सम्बन्ध में अनेकानेक, उत्तमोत्तम उपदेश दिये गये हैं। 'मनुर्भव, जनय दैव्यं जनम्’ 'माऽहिर्भू: मा पृदाकु:’ 'मा गृध:’ आदि उपदेश व्यक्ति निर्माण का मार्ग प्रदर्शित करते हैं। इसी प्रकार 'समापो हृदयानि नौ'क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे’ 'अनुव्रत: पितु: पुत्र: मात्र भवतु सम्मनामातृदेवो भव, पितृदेवो भव आदि अमृतवचन दम्पती एवं परिवार के सुख, सौभाग्य, प्रेम और प्रसन्नता का मार्गदर्शन करते हैं।
जहां व्यक्तियों का जीवन और चरित्र उत्तम होगा, परस्पर प्रीति और पञ्चमहायज्ञों के अनुष्ठान से परिवार सुख के धाम होंगे, वहां का समाज भी आदर्श समाज होगा।
व्यष्टि और समष्टि, व्यक्ति और समाज, परस्पर पूरक हैं। श्रेष्ठ व्यक्तियों से ही उत्तम समाज का निर्माण होता है, और श्रेष्ठ समाज में रहने वाले व्यक्तियों का जीवन भी अनुकरणीय बन जाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना हम रह नहीं सकते। समाज से ही हमें उत्तम संस्कार प्राप्त होते है। हमारे पास जो कुछ है, विद्या, भोजन, आवास, वस्त्र, नानाविध उपकरण (साधन) आदि ये सब हमें समाज से ही प्राप्त होते हैं। समाज के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है। यही कारण है कि महर्षि दयानन्द, महात्मा कबीर, राजा राममोहन राय, महात्मा ज्योतिबा फुले, डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर आदि महापुरुषों ने समाज सुधारक बनकर अपना संपूर्ण जीवन समाज के उन्नयन, सुधार और परिष्कार में स्वाहा कर दिया।
चारों वेदों में समाज को सुखी, समृद्ध, आनन्दपूर्ण और आदर्श बनाने के लिए सहस्रों मन्त्रों में सुन्दर-सुन्दर उपदेश दिये हैं। वेदमाता कहती हैं-
'सहृदयं सांमनस्यमविद्वेंषकृणेमि :
अन्योऽन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।
अर्थात् हे मनुष्यों। मैंने तुम्हें सहृदय, संमनस्क और द्वेषरहित बनाकर इस संसार में भेजा है। तुम सब परस्पर ऐसे प्रीति करो, जैसे गोमाता अपने सद्य: जात शिशु (बछड़े) से प्रेम करती है। समय के अनुसार समाज में अनेक दोष और कुरीतियां, जाती हैं। उनका निराकरण कर सामाजिक जीवन को निर्दोष बनाना अत्यावश्यक है। जब तक दोषों का परित्याग नहीं होगा, तब तक सद्गुणों का प्रवेश नहीं हो सकता है। वेद कहता है-
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद् भद्रं तन्न आसुव। यजु- 30/3
इस मन्त्र में प्रार्थना की गई है कि हे सविता देव। हमारे जीवन में जो दुर्गुण, दुर्व्यसन हैं उन्हें दूर कर दीजिये और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव हैं, उन्हें हमें प्राप्त कराइये।
समाज सुधारक महर्षि दयानन्द को यह मन्त्र अत्यन्त प्रिय था। जैसे हम प्रतिदिन प्रात: उठकर घर में झाड़ू लगाकर कूड़ा करकट बाहर निकालते हैं, वैसे ही हमें अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन से अपवित्रता को सतत बाहर करते रहना चाहिए।
ऋग्वेद का संगठन सूक्त, सामाजिक एकता का प्रबल उद्घोषक है-
सं समिद् युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य
इडस्पदे समिध्यसे नो वसून्या भर।
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम़्।
समानं मन्त्रमभिन्त्रये : समानेन वो हविषाजुहोमि
समानी आकूति: समाना हृदयानि :
समानमस्तु वो मनो यथा : सुसहासति।।
(ऋग्वेद 10/191)
वेद में प्राणिमात्र को मित्र दृष्टि से देखने की बात अनेक मन्त्रों में कही गई है। यथा-
मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।। (यजु- 36/18)
अर्थात् हम संसार के समस्त प्राणियों को मित्र दृष्टि से ही देखें। किसी के भी प्रति ईर्ष्या, द्वेष, शत्रुभाव और मनोमालिन्य रखें।
अथर्ववेद में ही प्रार्थना की गयी है कि हे भगवन्। ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में भी प्राणिमात्र के प्रति सद्भावना रखूं।
यांश्च पश्यामि यांश्च , तेषु मा सुमतिं कृधि।
(अथर्व 17/1/7)
समता की भावना
ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से कहा है कि ये सब मनुष्य भाई-भाई हैं, इनमें से कोई जन्म से बड़ा नहीं और कोई छोटा, इस समानता के भाव को धारण करते हुए सब ऐश्वर्य उन्नति के लिए मिलकर प्रयास करें और आगे बढें-
अज्येष्ठास अकनिष्ठास एते, सं भ्रातरो वावृधु: सौभगाय।।
(ऋग्वेद- 5/60/5)
समानता का यह भाव संपूर्ण समाज को एकता के सूत्र में बांधता है।
एक मन्त्र में कहा गया-
'सग्धिश्च में सपीतिश्च में (यजुर्वेद- 18/9)
अर्थात् हम सबके भोजन और पान के स्थान समान हो।
वैदिक काल की गुरुकुलीय परम्परा में राजा का पुत्र और निर्धन पिता का पुत्र सब साथ-साथ अध्ययन करते थे। एक जैसा भोजन करते थे। कोई बड़ा होता था और कोई छोटा। श्रीकृष्ण और सुदामा, महर्षि सन्दीपनी के आश्रम में एक साथ अध्ययन करते हुए एक जैसा जीवन जीते थे।
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था अथवा आश्रम व्यवस्था परिवारों और समाज को सुव्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिए थी। उसमें कहीं भी किसी भी तरह का ऊंच-नीच या विषमता का भाव नहीं था।
मानव कल्याण की भावना
ऋग्वेद में कहा गया है कि मनुष्य को मनुष्य की सब प्रकार से रक्षा करनी चाहिए-
'पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वत:‘ (ऋग्वेद 6/75/14)
अर्थववेद में भी ऐसी प्रार्थना की गई है कि हम मनुष्यों में परस्पर सुमति और सद्भावना का विस्तार हो-
''तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्य:
(अथर्व 3/30/4)
वेद में अकेले भोजन करने को पाप भक्षण जैसा माना है। अथर्ववेद में कहा है-
सहभक्षा: स्याम। (अथर्व- 6/30/4)
वेद कहता है- 'केवलाघो भवति केवलादी
(ऋग्वेद 10/117/60
अर्थात् अकेला खाने वाला व्यक्ति पाप का ही भक्षण करता है।
इसीलिये वेदों में भद्रा लक्ष्मी की कामना की गई है।
'वयं स्याम पतयो रणीयाम्अथवा 'अग्ने नय सुपथा रायेमें रयि की कामना की गयी है। रयि धन का वह दिव्यरूप है, जो देने में धन्यता अनुभव करता है। रयि शब्द रा दाने धातु से बनता है।
प्रजापति ने भी 'का उपदेश करते हुए दान की प्रेरणा दी थी।
 ऋत और सत्य
विराट् समाज को जोड़ने के लिए विश्वबन्धुत्व, परोपकार, दया, करूणा आदि दिव्य भावों के समान ऋत और सत्य भी अत्यावश्यक माने गये हैं। प्रतिदिन की जाने वाली संध्या में 'ऋतं सत्यमचाभीद्धात्तपसोऽध्यजायतमें यही प्रार्थना की गयी है।
सत्य और ऋत देश को सुदृढ़ता और गौरव प्रदान करते हैं। वेद में सत्य की महिमा वर्णित करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार सूर्य द्वारा द्युलोक का धारण हो रहा है, उसी तरह-
'सत्येनोत्तभिता भूमि:’ (ऋग्वेद 10/85/1)
सत्य से भूमि का धारण होता है।
अथर्ववेद के भूमिसूक्त के प्रथम मन्त्र में राष्ट्र को धारण करने वाले तत्त्वों में सर्वप्रथम सत्य और ऋत् को ही परिगणित किया गया है -
'सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति।
(अथर्ववेद- 12/9/9)
इसी प्रकार वैदिक चिन्तन धारा में व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए व्रत धारण का उपदेश दिया गया है-
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणामं।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।। (यजु. 19/30)
इस प्रकार वेदों में उत्तम समाज के निर्माण के लिए अनेकानेक सन्दर्भ विद्यमान हैं। आवश्यकता है इनका प्रचार-प्रसार संपूर्ण समाज में हो जिससे कि वैदिक जीवन मूल्यों, आदर्शों और शिक्षाओं से हम समाज का नवनिर्माण करें।
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