समकालीन भारत में सुरक्षा एवं सुव्यवस्था के आधार और स्वरूप

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

भारतीय संस्कृति, धर्म तथा परंपरा का भी पुलिस अधिकारियों, कर्मचारियों आदि को कोई भी ज्ञान या प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। इसके विपरीत उन्हें एंग्लो क्रिश्चियन आस्थाओं, मान्यताओं और कानूनों का ही ज्ञान दिया जाता है। संस्कारवश भले ही हिन्दू पुलिसकर्मी हिन्दू संस्कारों से सम्पन्न रहें, परन्तु उनके कार्य व्यवहार और कार्य की संस्कृति पर हिन्दुत्व यानी भारतीयता के अनुशासन की कोई व्यवस्था नहीं है।
सुरक्षा और सुव्यवस्था के दो तल है -
               1.    राज्य की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था
               2.    समाज की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था
राज्य समाज की ही प्रतिनिधि संस्था है। यही उसकी वैधता है। भारत का संविधान भी यही कहता है कि हम भारत के लोगों ने इस लोकतांत्रिक गणराज्य के संचालन के लिये इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया है।अत: संविधान की वैधता भारत के लोगों से है। अन्य कोई बाहरी अथॅारिटीसंविधान की वैधता का आधार नहीं है।
राज्य एवं समाज दोनों की सुरक्षा के लिये राज्य ही अधिकृत संस्था है। समाज की सुरक्षा वह कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिये रचित संस्थाओं के द्वारा करती है। इनमें भाग 14 के अंतर्गत अध्याय 1 में वर्णित सर्विसेसहैं। अनुच्छेद 312 में अखिल भारतीय सेवायें दी गई हैं जो वस्तुत: भारतीय प्रशासनिक सेवायें एवं भारतीय पुलिस सेवायें हैं। इसके साथ ही अखिल भारतीय न्यायिक सेवा भी इसी अनुच्छेद के अंतर्गत आती है। भाग 14 के अध्याय 2 में लोकसेवा आयोग का प्रावधान है। इसके साथ ही भाग 14 (क) में अभिकरणों का प्रावधान है। भाग 16 में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षण के प्रावधान हैं जिनमें अब अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण भी जुड़ गया है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभा दोनों जगह अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों का आरक्षण है, साथ ही लोकसभा में और राज्यों की विधानसभाओं में आंग्ल भारतीय (एंग्लो इंडियन) समुदाय के प्रतिनिधित्व की विशेष व्यवस्था है। अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जातियों के विषय में प्रावधान है और अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजातियों के विषय में प्रावधान है। दूसरी ओर अनुच्छेद 154 में राज्यों की कार्यपालिका शक्ति के विषय में प्रावधान है।
अनुच्छेद 309, 310 और 311 में राज्यों की भी सिविल सेवाओं का सामान्य स्वरूप निर्धारित है, परंतु वस्तुत: इन सेवाओं की संरचना के विषय में संविधान कुछ नहीं कहता। अत: ये सभी संरचनायें शासक दल और प्रशासकों के विवेक के अधीन हैं। समाज की सुरक्षा का समस्त दायित्व इन्हीं सेवाओं को सौंप दिया गया है। औपचारिक रूप से सभी सेवायें और संपूर्ण भारत शासन भारत के लोगों के लिए ही है, परंतु इस कथन का सामान्य अर्थ और महत्व एक काव्यात्मक या अलंकारिक कथन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। किसी भी प्रादेशिक सेवा की संरचना और कार्यशैली पर भारतीय समाज का कोई भी नियंत्रण नहीं है।
इसी प्रकार संविधान के भाग 5 के अध्याय 4 में संघ की न्यायपालिका का स्वरूप निर्धारित किया गया है जो अनुच्छेद 124 से अनुच्छेद 147 तक है। साथ ही भाग 6 के अध्याय 5 में अनुच्छेद 214 से अनुच्छेद 231 तक राज्यों के उच्च न्यायालयों और अध्याय 6 में अनुच्छेद 233 से अनुच्छेद 237 तक अधीनस्थ न्यायालयों के संबंध में प्रावधान हैं। न्यायालयों का उद्देश्य भी भारतीय समाज को सुरक्षा और सुव्यवस्था प्रदान करना तथा इन्हें भंग करने वालों को दंडित करना और पीडि़तों के साथ न्याय करना है, परंतु इस समस्त न्यायिक प्रक्रिया में भारत के बहुसंख्यक समाज की अब तक की न्यायिक परंपराओं, विधि संबंधी मान्यताओं और विधिक परम्पराओं का कोई स्थान नहीं है।
परंपरा से भारतीय समाज की सुरक्षा का मुख्य आधार तो राज्य था ही, परंतु स्थानीय स्तर पर स्वायत्त संस्थायें तथा स्थानीय जाति पंचायतें, गांव और मेड़ी की पंचायतें, खाप पंचायतें आदि ही सुरक्षा एवं सुव्यवस्था का आधार रही हैं। परंतु वे सभी वर्तमान समय में अवैध घोषित हैं। इसी प्रकार गांव में अनेक हिस्से में ग्राम रक्षक दल भी परंपरा में होते रहे हैं। अब उनका भी कोई विधिक अस्तित्व नहीं है। नागरिकों के समूह शासन के समक्ष समितियां पंजीकृत करके अंग्रेजी काल में बनाये गये सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के अंतर्गत काम कर सकते हैं और अपने ढंग से स्थानीय पुलिस के संज्ञान में लाकर स्थानीय सुरक्षा की व्यवस्था भी कर सकते हैं। परंपरा से गांव की सुरक्षा और सुव्यवस्था के जो भी आधार थे, वे सब अवैध घोषित हो चुके हैं। अत: उनका अस्तित्व अब लुप्त प्राय: ही है।

राज्य की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था -

राज्य की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था का वर्तमान संरचना में बहुत ही अच्छा स्थान है। सीमाओं की तथा राज्य की सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं की सुरक्षा के लिये भारतीय सेनायें हैं और अर्धसैनिक बल हैं। इसके साथ ही पुलिस भी है। घोषित तौर पर पुलिस का काम नागरिकों की सुरक्षा करना है। इसके नितांत विपरीत, राज्य के अधिकारी जिनमें सिविल सर्विस के अधिकारी और पुलिस अधिकारी दोनों ही शामिल हैं, राजकीय नेताओं अर्थात पार्षदों, विधायकों, सांसदों, राज्य के मंत्रियों और मुख्यमंत्री तथा केन्द्र के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों तथा केबिनेट सचिव, मुख्य सचिवों और सभी महत्वपूर्ण सचिवों की ओर से पुलिस के जरिये नागरिकों के जीवन को नियंत्रित और प्रभावित करते हैं। इस प्रकार सुरक्षा से अधिक नियंत्रण ही पुलिस के द्वारा किया जाता है। भारतीय संस्कृति, धर्म तथा परंपरा का भी पुलिस अधिकारियों, कर्मचारियों आदि को कोई भी ज्ञान या प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। इसके विपरीत उन्हें एंग्लो क्रिश्चियन आस्थाओं, मान्यताओं और कानूनों का ही ज्ञान दिया जाता है। संस्कारवश भले ही हिन्दू पुलिसकर्मी हिन्दू संस्कारों से सम्पन्न रहें, परन्तु उनके कार्य व्यवहार और कार्य की संस्कृति पर हिन्दुत्व यानी भारतीयता के अनुशासन की कोई व्यवस्था नहीं है। अपितु क्रिश्चियन अनुशासन की ही व्यवस्था है। इस कारण व्यवहार के स्तर पर पुलिस बल भारतीय संस्कृति और समाज का पालन पोषण कर रही संस्थाओं के लिये अजनबी (एलियन) और अपरिचित ही होते हैं। उन्हें वस्तुत: यूरो-इंडियन आस्थाओं वाले राजकीय अधिकारियों के ही निर्देश का पालन करना सिखाया जाता है और यही उनका आदर्श माना जाता है। अत: सेवा और सुरक्षा की बात एक सुहाना नारा ही है। पुलिस के द्वारा राजकीय लोग (नेता और अफसर दोनों) जनगण के जीवन को नियंत्रित करते हैं। निश्चय ही, जिस सीमा तक वे अपराधियों को नियंत्रित करते हैं, उस सीमा तक वह नागरिकों के जीवन को राहत देने वाला काम है, परंतु शेष समय वे सामान्य नागरिक जीवन को बाधित ही करते हैं। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति किसी से दुव्र्यवहार करता है अथवा माताओं-बहनों बेटियों के साथ अनुचित व्यवहार करता है, तो उसे दंडित करने की अनुमति संबंधित पीडि़त के परिजनों को नहीं है और स्थानीय पंचायतों को भी नहीं है। पीडि़त से अपेक्षा की जाती है कि वह थाने जाये और शिकायत दर्ज करा दे जो दर्ज कराना भी स्वयं में एक थकाऊ और विरक्ति उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया है। इसके बाद नागरिकों की समस्याओं के संदर्भ में अत्यल्प संख्या वाले थाने के सिपाहियों से अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसे हर दुव्र्यवहार की जांच कर फिर अभियुक्त पर अभियोग दर्ज करें और न्यायालय में उसे प्रस्तुत करें, जहां वर्षों बाद अनेक अवरोधों और व्यवधानों के उपरांत न्याय मिलने की आशा है। इस प्रकार आत्मगौरव और आत्मसम्मान की रक्षा का नागरिक अधिकार इस पुलिस व्यवस्था के द्वारा निरंतर बाधित है।
इसी प्रकार यदि कोई चोर चोरी करते हुये पकड़ लिया जाये तो उसकी भी रिपोर्ट थाने में करनी आवश्यक है। आप सीधे उससे माल नहीं ले सकते और उसे दंडित भी नहीं कर सकते। कोई घर में आगजनी कर रहा हो तो धर्मशास्त्रों के अनुसार उसके वध की व्यवस्था है, परंतु वर्तमान कानूनों के रहते आप यह नहीं कर सकते अपितु पहले तो शोरगुल मचा कर किसी प्रकार उसे रोकना होगा और फिर पुलिस को बुलाना होगा। जब वह आ जाये तब मुकदमा दर्ज कराना होगा। जिसकी जांच पुलिस कर्मचारी अपनी भीषण व्यस्तताओं के बीच आराम से करेगा। उसमें अभियुक्त की और अभियुक्त के पक्ष के साक्षी का भी महत्व है और उससे प्रकरण उलझने की पूरी संभावना रहती है। यानी जिन आतताइयों का वध धर्मशास्त्र के अनुसार धर्मादेश है, उसके पाप की रिपोर्ट आप पुलिस को कीजिये और फिर इंतजार कीजिये कि सामने प्रत्यक्ष पाप कर चुका व्यक्ति अदंडित रह जाये अथवा उलटा आप पर ही अभियोग लग जाये।
इसी प्रकार आपके इष्ट देव को, आपके धर्म को और स्वयं भारत माता को अपशब्द कहने वाले व्यक्ति का आप वध नहीं कर सकते, जबकि ऐसे आततायी का वध धर्मशास्त्र का आदेश है। पर आप जाइये, पुलिस में उसकी रिपोर्ट कीजिये। आततायी को झूठा मामला बनाने का आपके समकक्ष अवसर सुलभ है और आप निरीह भाव से सबकुछ देखने को विवश हैं। इसी अर्थ में, पुलिस का उपयोग सेवा और सुरक्षा के नाम पर नागरिक जीवन को नियंत्रित करने के लिये होता है। 
पुलिस राजकीय एजेंसी ही है और इसीलिये उसका वास्तविक काम राज्य की और राज्यकर्ताओं की सुरक्षा करना ही रह गया है। समाज राज्य के और राज्यकर्ताओं के नियंत्रण में रहे, कोई भी नागरिक या व्यक्ति राज्य और राज्यकर्ताओं के नियंत्रण से बाहर कोई भी काम ना कर सके, यह देखना ही सिद्धांत के स्तर पर और संरचना के स्तर पर पुलिस का काम रह गया है। यद्यपि औपचारिक घोषणा के स्तर पर पुलिस का काम जन सुरक्षा है, परंतु जन के जीवन के विषय में सभी निर्णय राज्यकर्ता ही ले रहे हैं और उन लिये गये निर्णयों को लागू कराना ही पुलिस की जिम्मेदारी है। इस प्रकार पुलिस वस्तुत: राज्य और राज्यकर्ताओं की ओर से नागरिकों और व्यक्तियों के नियंत्रण के लिये ही है। यही सुरक्षा एवं सुव्यवस्था के संबंध में वास्तविक स्थिति है।

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